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पातञ्जल  -  योगदर्शनम् ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
कैवल्य पाद ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
कैवल्यपाद में प्रतिपाद्य विषय    प्रतिपाद्य विषय  सूत्र संख्या ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
जन्मौषधिमंत्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः॥ 4/1 ॥ [162] जन्म ,  ओषधि ,  मंत्र ,  तप और समाधि से प्राप्त होनेवाली सिद्धियाँ  ( पाँच )  हैं।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात् ॥ 4/2 ॥ [163] अन्य प्रकार व जाति में बदलजाना  प्रकृति - उपादान कारणों की अपेक्षित पूर्ति से होता है । ,[object Object],[object Object],[object Object]
निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ॥ 4/3 ॥ [164] निमित्त - योगज धर्म प्रयोजक - प्रेरक नहीं होता सीधा उपादान तत्त्वों का ;  वरण - बाधा का भेदन तो होता है उससे  ( निमित्त - योगज धर्म से )  क्षेत्रिक - किसान के कार्य के समान।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात् ॥ 4/4 ॥ [165] बनाये हुए चित्त केवल अस्मिता  - अहंकार से ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम् ॥ 4/5 ॥ [166] प्रवृत्ति के भेद में प्रयोजक होता है चित्त एक ,  अनेकों का ।  ,[object Object],[object Object],[object Object]
तत्र ध्यानजमनाशयम् ॥ 4/6 ॥ [167]  उन चित्तों में से जो चित्त ध्यान एवं समाधि द्वारा शुद्ध सात्त्विकरूप में अभिव्य्क्त होगया है ,  वह आशय - वासनाओं से रहित होचुका है। अब वासना उसको प्रभावित नहीं करपाती । ,[object Object],[object Object],[object Object]
कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्॥ 4/7 ॥ [168] कर्म न शुक्ल न कृष्ण होता है ,  योगी का ;  तीन प्रकार का होता है अन्य व्यक्तियों - अयोगियों का ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
ततस्तद्विपाकानुगुणानामेव अभिव्यक्तिर्वासनानाम् ॥ 4/8 ॥ [169] उस त्रिविध कर्म से उन कर्मों के परिपाक - फलों के अनुरूप ही  प्रकट होना होता है वासनाओं का ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
कर्मों का परिपाक ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्यं  स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात् ॥ 4/9 ॥ [170] जाति ,  देश और काल से व्यवहित भी  ( वासनाओं का )  आनन्तर्य -  अव्यवधान  ( स्मृति के साथ बना रहता है ,  क्योंकि )  स्मृति और संस्कारों के एकरूप होने से - समानविषयक होने से ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात्॥ 4/10 ॥ [171] उन वासनाओं का अनादि होना भी जानाजाता है  जीवन की शुभ अभिलाषाओं के सदा बने रहने से ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
हेतुफलाश्रयालम्बनैः संगृहीतत्त्वादेषामभावे तदभावः ॥ 4/11 ॥ [172] हेतु ,  फल ,  आश्रय और आलम्बन से संगृहीत होने के कारण  इनके  ( हेतु आदि के )  अभाव - न रहने की दशा में  उन - वासनाओं का अभाव होजाता है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
अतीतानागतं स्वरूपतः अस्त्यध्वभेदात् धर्माणाम् ॥ 4/12 ॥ [173] अतीत और अनागत स्वरूप से बना रहता है  (  तात्पर्य है - अपने स्वरूप को खोता नहीं )  । कालिक आधार पर मार्गभेद से धर्मों के - कार्यों के बने रहने पर ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
ते व्यक्तसूक्ष्माः गुणात्मानः ॥ 4/13 ॥ [174] वे - कालिक आधार से तीन मार्गों  (  भूत ,  वर्तमान ,  भविष्यत् )  पर चलनेवाले - धर्म व्यक्त - प्रकट और सूक्ष्म सब प्रकार के गुणस्वरूप हैं।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
परिणामैकत्त्वाद् वस्तुतत्त्वम् ॥ 4/14 ॥ [175] परिणाम के एक होने से वस्तु की एकता मानीजाती है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः पंथाः॥ 4/15 ॥ [176] वस्तु को उसकी समस्थिति  ( यथार्थ स्थिति )  में मानने पर  चित्त - ज्ञान अथवा विज्ञान के भेद से वस्तु और विज्ञान  उन दोनों का बँटा हुआ है मार्ग ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
नचैकचित्ततन्त्रं वस्तु तदप्रमाणकं तदा किं स्यात् ॥ 4/16 ॥ [177] और नहीं है एकचित्त के अधीन कोई वस्तु ,  वह वस्तु प्रमाणरहित - अप्रमाणिक तब क्या होजायगी ?  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
तदुपरागापेक्षित्वाच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम्॥ 4/17 ॥ [178] उस वाह्य विषय के उपराग - सम्बन्ध की अपेक्षा करनेवाला होने से  चित्त के बाह्य पदार्थ ज्ञात और अज्ञात रहते हैं ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात्॥ 4/18 ॥ [179] सर्वदा जानीजाती हैं चित्तवृत्तियाँ  ( अन्य तत्त्व के द्वारा )  उसके - चित्त के स्वामी पुरुष के अपरिणामी होने से ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
न तत् स्वाभासं दृश्यत्वात् ॥ 4/19 ॥ [180] नहीं वह - चित्त स्वप्रकाश - स्वरूप दृश्य होने से ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
एकसमये चोभयानवधारणम् ॥ 4/20 ॥ [181] एक समय में तथा दोनों का अवधारण - निश्चय - ज्ञान नहीं होसकता। ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
चित्तांतरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसंगः स्मृतिसंकरश्च ॥ 4/21 ॥ [182]   एक चित्त के अन्य चित्त देखेजाने पर  उस दूसरी बुद्धि के ज्ञान से अनवस्था दोष उपस्थित होगा ,  और स्मृति का संकर दोष होगा ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ॥ 4/22 ॥ [183] प्रतिसंक्रम -  परिणतिगति से रहित अर्थात् स्थिर चिति  ( चेतन आत्मतत्त्व )  के समीप विषयाकार चित्त के प्राप्त होने पर ,  चिति को अपने चित्त का अनुभव होजाता है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
ज्ञान - प्राप्ति की प्रक्रिया ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
द्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम् ॥ 4/23 ॥ [184]  द्रष्टा और दृश्य दोनों से उपरक्त - रंगा हुआ चित्त  सब विषयोंवाला प्रतीत होता है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि परार्थं संहत्यकारित्वात् ॥ 4/24 ॥ [185]  वह चित्त अनगिनित वासनाओं से चित्रित हुआ - चितेरा हुआ भी  अन्य के लिये होता है ;  संहत्यकारी होने के कारण ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
विशेषदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्तिः॥ 4/25 ॥ [186]  भेद का साक्षात्कार करनेवाले योगी को चित्त में  आत्मीयता की भावना समाप्त हो जाती है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम् ॥ 4/26 ॥ [187] उस समय विवेक की ओर झुकनेवाला  कैवल्य - भावना से भरा हुआ चित्त होजाता है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
तच्छिद्रेषु प्रत्ययंतराणि संस्कारेभ्यः॥ 4/27 ॥ [188] विवेकी चित्त के छिद्रों -  अंतराल के अवसरों में  विवेकज्ञान - प्रवाह से भिन्न ज्ञान होते रहते हैं। संस्कारों से ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
हानमेषां क्लेशवदुक्तम् ॥ 4/ 28 ॥ [189] हान -  नाश इन संस्कारों का क्लेशों के समान कहागया समझना चाहिये ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
प्रसंख्याने अप्यकुसीदस्य सर्वथा  विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः॥ 4/29 ॥ [190] विवेकख्याति में भी अनुराग न रखनेवाले योगी को पूर्णरूप में विवेकख्याति से  धर्ममेघ नामक समाधि दशा प्राप्त होजाती है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः ॥ 4/30 ॥ [191] उससे - धर्ममेघ समाधि सिद्ध होने के अनंतर  क्लेश तथा तन्मूलक कर्मों की निवृत्ति - समाप्ति होजाती है । ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्य आनंत्याज्ज्ञेयमल्पम्॥ 4/31 ॥ [192] तब  - क्लेश कर्मों की निवृत्ति होजाने पर धर्ममेघ समाधि की अवस्था में  सब आवरण और मलों  से रहित हुए चित्त के अनंत - अत्यधिक शक्तिसम्पन्न होजाने से  ज्ञेय - जानने  योग्य विषय थोड़ा रह जाता है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिः  गुणानाम् ॥ 4/ 32 ॥ [193] उससे -  धर्ममेघ समाधि के उदय से कृतकार्य हुए  परिणाम के क्रम की समाप्ति होजाती है गुणों के ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
क्षणप्रतियोगी परिणामापरांतनिर्ग्राह्यः क्रमः॥ 4/ 33 ॥ [194] क्षण के साम्मुख्य से बाधित होनेवाला परिणाम के अवसान पर  गृहीत होनेवाला क्रम कहा गया है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ॥ 4/34 ॥ [195] पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि से शून्य हुए गुणों का अपने कारणों में लीन होजान कैवल्य है। अथवा स्वरूप में प्रतिष्ठित चितिशक्ति कैवल्य है। यह शास्त्र समाप्त होता है ।  ,[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object],[object Object]
इति योगदर्शने कैवल्यपादः

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