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सूरदास का नाम कृ ष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाक्तित
करने वाले भि कक्तवयों में सवोपरर िै। क्तिन्दी साक्तित्य में
भगवान श्रीकृ ष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के
श्रेष्ठ कक्तव मिात्मा सूरदास क्तििंदी साक्तित्य के सूयय माने
जाते िैं। क्तििंदी कक्तवता काक्तमनी के इस कमनीय कािंत ने
क्तििंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान क्तदया िै, वि
अक्तितीय िै। सूरदास क्तिन्दी साक्तित्य में भक्ति काल के
सगुण भक्ति शाखा के कृ ष्ण-भक्ति उपशाखा के मिान
कक्तव िैं।
सूरदास का जन्म १४७८ ईस्वी में रुनकता नामक गािंव में िुआ।
यि गााँव मथुरा-आगरा मागय के क्तकनारे क्तस्थत िै। कु छ क्तविानों का
मत िै क्तक सूर का जन्म सीिी नामक ग्राम में एक क्तनधयन
सारस्वत ब्राह्मण पररवार में िुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा
के बीच गऊघाट पर आकर रिने लगे थे। सूरदास के क्तपता
रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मािंध िोने के क्तवषय में मतभेद
िै। प्रारिंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रिते थे। विीं
उनकी भेंट श्री वल्लभाचायय से िुई और वे उनके क्तशष्य बन गए।
वल्लभाचायय ने उनको पुक्तिमागय में दीक्तित कर के कृ ष्णलीला के
पद गाने का आदेश क्तदया। सूरदास की मृत्यु गोवधयन के क्तनकट
पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में िुई।
ऊधौ , तुम िो अक्तत बड़भागी ।
अपरस रित सनेि तगा तैं , नाक्तिन मन अनुरागी।
पुरइक्तन पात रित जल भीतर , ता रस देि न दागी।
ज्यों जल मािंि तेल की गागरर , बूाँद न ताकौं लागी ।
प्रीक्तत - नदी में पााँव न बोरयौ, दृक्ति न रूप परागी।
'सूरदास ' अबला िम भोरी , गुर चााँटी ज्यों पागी ॥
व्याख्या
प्रस्तुत पद में गोक्तपयों ने उदधव के ज्ञान-मागय और योग-साधना को
नकारते िुए उनकी प्रेम-सिंबिंधी उदासीनता को लक्ष्य कर व्यिंग्य
क्तकया िै साथ िी भक्ति-मागय में अपनी आस्था व्यि करते िुए किा िै-
िे उद्धव जी! आप बड़े भाग्यशाली िैं जो प्रेम के बिंधन में निीं बिंधे और
न आपके मन में क्तकसी के प्रक्तत कोई अनुराग जगा। क्तजस प्रकार जल में
रिनेवाले कमल के पत्ते पर एक भी बूाँद निीं ठिरती,क्तजस प्रकार तेल
की गगरी को जल में क्तभगोने पर उस पानी की एक भी बूाँद निीं ठिर
पाती,ठीक उसी प्रकार आप श्री कृ ष्ण रूपी प्रेम की नदी के साथ रिते
िुए भी उसमें स्नान करने की बात तो दूर आप पर तो श्रीकृ ष्ण-प्रेम की
एक छींट भी निीं पड़ी।
अत: आप भाग्यशाली निीं िैं क्योंक्तक िम तो श्रीकृ ष्ण के प्रेम की
नदी में डूबती-उतराती रिती िैं।िे उद्धव जी! िमारी दशा तो उस
चींटी के समान िै जो गुड़ के प्रक्तत आकक्तषयत िोकर विााँ जाती और
विीं पर क्तचपक जाती िै और चािकर क्तभ अपने को अलग निीं कर
पाती और अपने अिंक्ततम सााँस तक बस विीं क्तचपके रिती िै।
संदेशा
क्तनगुयण की उपासना के प्रक्तत उद्धव की अनुरक्ति पर व्यिंग्य करते
िुए गोक्तपयों ने किना चािा िै क्तक िम आप जैसे सिंसार से क्तवरि
निीं िो सकते। िम सािंसाररक िैं। अत:एक दूजे से प्रेम करते िैं ।
िमारे मन में कृ ष्ण की भक्ति और अनुरक्ति िै। कृ ष्ण से अलग
िमारी कोई पिचान निीं। िम अबलाओिंके क्तलए ज्ञान-मागय बड़ा
कक्तठन िै।
मन की मन िी मााँझ रिी ।
कक्तिए जाइ कौन पै ऊधौ , नािीं परत किी ।
अवक्तध असार आस आवन की , तन - मन क्तवथा सिी।
अब इन जोग साँदेसक्तन सुक्तन-सुक्तन ,क्तवरक्तिक्तन क्तवरि दिी ।
चािक्तत िुती गुिारर क्तजतक्तििं तैं , उत तैं धार बिी ।
'सूरदास' अब धीर धरक्तििं क्यौं , मरजादा न लिी ॥
व्याख्या
श्री कृ ष्ण के क्तमत्र उद्धव जी जब कृ ष्ण का सिंदेश सुनाते िैं क्तक वे निीं आ
सकते , तब गोक्तपयों का हृदय मचल उठता िै और अधीर िोकर उद्धव से
किती िैं िे उद्धव जी! िमारे मन की बात तो िमारे मन में िी रि गई। िम
कृ ष्ण से बिुत कु छ किना चाि रिी थीं, पर अब िम कै से कि पाएाँगी। िे
उद्धव जी! जो बातें िमें के वल और के वल श्री कृ ष्ण से किनी िै, उन बातों
को क्तकसी और को किकर सिंदेश निीं भेज सकती। श्री कृ ष्ण ने जाते
समय किा था क्तक काम समाप्त कर वे जल्दी िी लौटेंगे। िमारा तन और
मन उनके क्तवयोग में दुखी िै, क्तिर भी िम उनके वापसी के समय का
इिंतजार कर रिी थीं । मन में बस एक आशा थी क्तक वे आएाँगे तो
िमारे सारे दुख दूर िो जाएाँगे।
परन्तु; श्री कृ ष्ण ने िमारे क्तलए ज्ञान-योग का सिंदेश भेजकर िमें
और भी दुखी कर क्तदया। िम तो पिले िी दुखी थीं, अब इस सिंदेश
ने तो िमें किीं का निीं छोड़ा। िे उद्धव जी! िमारे क्तलए यि क्तवपदा
की घड़ी िै,ऐसे में िर कोई अपने रिक को आवाज लगाता िै। पर,
िमारा दुभायग्य देक्तखए क्तक ऐसी घड़ी में क्तजसे िम पुकारना चािती
िैं, विी िमारे दुख का कारण िै। िे उद्धव जी! प्रेम की मयायदा िै क्तक
प्रेम के बदले प्रेम िी क्तदया जाए ,पर श्री कृ ष्ण ने िमारे साथ छल
क्तकया िै। उन्िोने मयायदा का उल्लिंघन क्तकया िै। अत: अब िमारा
धैयय भी जवाब दे रिा िै।
संदेशा
प्रेम का प्रसार बस प्रेम के आदान-प्रदान से िी सिंभव िै और यिी
इसकी मयायदा भी िै। प्रेम के बदले योग का सिंदेशा देकर श्री कृ ष्ण
ने मयायदा को तोड़ा,तो उन्िे भी जली-कटी सुननी पड़ी। और प्रेम
के बदले योग का पाठ पढ़ानेवाले उद्धव को भी व्यिंग्य और
अपमान झेलना पड़ा। अत: क्तकसी के प्रेम का अनादर करना
अनुक्तचत िै।
िमारे िरर िाररल की लकरी ।
मन - क्रम - वचन निंद - निंदन उर , यि दृढ़ करर पकरी ।
जागत सोवत स्वप्न क्तदवस - क्तनक्तस , कान्ि - कान्ि जकरी ।
सुनत जोग लागत िै ऐसो , ज्यौं करूई ककरी ।
सु तौ ब्याक्तध िमकौं लै आए , देखी सुनी न करी ।
यि तौ 'सूर' क्ततनक्तििं लै सौंपौ , क्तजनके मन चकरी ।।
व्याख्या
मिाकक्तव सूरदास िारा रक्तचत ‘सूरसागर’ के पााँचवें खण्ड से उद्धॄत इस
पद में गोक्तपयों ने उद्धव के योग -सन्देश के प्रक्तत अरुक्तच क्तदखाते
िुए कृ ष्ण के प्रक्तत अपनी अनन्य भक्ति को व्यि क्तकया िै ।गोक्तपयााँ
किती िैं क्तक िे उद्धव ! कृ ष्ण तो िमारे क्तलये िाररल पिी की लकड़ी
की तरि िैं । जैसे िाररल पिी उड़ते वि अपने पैरों मे कोई लकड़ी या
क्ततनका थामे रिता िै और उसे क्तवश्वास िोता िै क्तक यि लकड़ी उसे
क्तगरने निीं देगी , ठीक उसी प्रकार कृ ष्ण भी िमारे जीवन के आधार िैं
। िमने मन कमय और वचन से नन्द बाबा के पुत्र कृ ष्ण को अपना
माना िै । अब तो सोते - जागते या सपने में क्तदन - रात िमारा मन
बस कृ ष्ण-कृ ष्ण का जाप करते रिता िै ।
िे उद्धव ! िम कृ ष्ण की दीवानी गोक्तपयों को तुम्िारा यि योग -
सन्देश कड़वी ककड़ी के समान त्याज्य लग रिा िै । िमें तो
कृ ष्ण - प्रेम का रोग लग चुका िै, अब िम तुम्िारे किने पर योग
का रोग निीं लगा सकतीं क्योंक्तक िमने तो इसके बारे में न कभी
सुना, न देखा और न कभी इसको भोगा िी िै । िमारे क्तलये यि
ज्ञान-मागय सवयथा अनजान िै । अत: आप ऎसे लोगों को इसका
ज्ञान बााँक्तटए क्तजनका मन चिंचल िै अथायत जो क्तकसी एक के प्रक्तत
आस्थावान निीं िैं।
संदेशा
भक्ति और आस्था क्तितान्त व्यक्तिगत भाव हैं ।अत: इसके मागग
और पद्धक्तत का चुिाव भी व्यक्तिगत ही होता है । क्तकसी पर अपिे
क्तवचार थोपिा या अपिी पद्धक्तत को ही श्रेष्ठ कहिा और अन्य को
व्यथग बतािा तकग -संगत िहीं होता । प्रेम कोई व्यापार िहीं है
क्तिसमेंहाक्ति-लाभ की क्तचन्ता की िाय ।
िरर िैं राजनीक्तत पक्ति आए ।
समुझी बात कित मधुकर के , समाचार सब पाए ।
इक अक्तत चतुर िुतै पक्तिलें िीं , अब गुरुग्रिंथ पिाए ।
बढ़ी बुक्तद्ध जानी जो उनकी , जोग साँदेस पठाए ।
ऊधौ लोग भले आगे के , पर क्तित डोलत धाए ।
अब अपने मन िे र पाईिें , चलत जु िुते चुराए ।
तें क्यौं अनीक्तत करें आपुन ,जे और अनीक्तत छु ड़ाए ।
राज धरम तो यिै ' सूर ' , जो प्रजा न जाक्तििं सताए ॥
व्याख्या
उद्धव िारा कृ ष्ण के सन्देश को सुनकर तथा उनके मिंतव्य को
जानकर गोक्तपयों को बिुत दुख िुआ । गोक्तपयााँ बात करती िुई
व्यिंग्यपूवयक किती िैं क्तक वे तो पिले से िी बिुत चतुर - चालाक थे ।अब
राजनीक्ततक कारण से मथुरा गये िैं तो शायद राजनीक्तत शास्त्र मे भी
मिारत िाक्तसल कर ली िै और िमारे साथ िी राजनीक्तत कर रिे िैं ।विााँ
जाकर शायद उनकी बुक्तद्ध बढ़ गई िै तभी तो िमारे बारे में सब कु छ
जानते िुए भी उन्िोंने िमारे पास उद्धव से योग का सन्देश भेजा िै ।
उद्धव जी का इसमे कोई दोष निीं । वे तो अगले ज़माने के आदमी की
तरि दूसरों के कल्याण करने में िी आनन्द का अनुभव करते िैं ।
िे उद्धव जी ! यक्तद कृ ष्ण ने िमसे दूर रिने का क्तनणयय ले िी क्तलया
िै तो िम भी कोई मरे निी जा रिीं । आप जाकर कक्तिएगा क्तक यिााँ
से मथुरा जाते वि श्रीकृ ष्ण िमारा मन भी अपने साथ ले गए थे ।
िमारा मन तो उन्िीं के साथ िै ;उसे वे वापस कर दें । अत्याचारी
का दमन कर प्रजा को अत्याचार से मुक्ति क्तदलाने के क्तलए वे
मथुरा गए थे । परन्तु ; विााँ जाकर वे स्वयिं िम पर अत्याचार कर
रिे िैं । कक्तिएगा क्तक एक अत्याचारी को कोई िक़ निीं क्तक वि
क्तकसी दूसरे अत्याचारी पर ऊाँ गली उठाए । िे उद्धव जी ! आप उनसे
कक्तिएगा क्तक वे िमारे राजा िैं और राजा िोने के नाते उन्िें कोई
भी ऐसा काम निीं करना चाक्तिये क्तजससे उनकी प्रजा को क्तकसी
भी प्रकार से , कोई भी कि पिुाँचे । यिी एक राजा का धमय िै ।
संदेशा
गोक्तपयों ने अपनी बातों से जताया िै क्तक वे कृ ष्ण से अलग िो िी
निीं सकतीं । उनका मन सदा कृ ष्ण मे िी लगा रिता िै । गोक्तपयों
ने अगले "जमाने का आदमी" किकर उद्धव पर तो व्यिंग्य क्तकया
िी िै बात िी बात में उन्िोंने श्रीकृ ष्ण को उलािना भी क्तदया िै क्तक
योग सन्देश भेजकर उन्िोंने अत्याचार क्तकया िै । मात्र एक लक्ष्य
को पाने के क्तलए अपनों से मुाँि मोड़ना या भूल जाना बुक्तद्धमानी
निीं किी जाती । िर िाल में अपने धमय का क्तनवायि करना चाक्तिए ।
सूरदास के पद

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सूरदास के पद

  • 1.
  • 2. सूरदास का नाम कृ ष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाक्तित करने वाले भि कक्तवयों में सवोपरर िै। क्तिन्दी साक्तित्य में भगवान श्रीकृ ष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कक्तव मिात्मा सूरदास क्तििंदी साक्तित्य के सूयय माने जाते िैं। क्तििंदी कक्तवता काक्तमनी के इस कमनीय कािंत ने क्तििंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान क्तदया िै, वि अक्तितीय िै। सूरदास क्तिन्दी साक्तित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृ ष्ण-भक्ति उपशाखा के मिान कक्तव िैं।
  • 3. सूरदास का जन्म १४७८ ईस्वी में रुनकता नामक गािंव में िुआ। यि गााँव मथुरा-आगरा मागय के क्तकनारे क्तस्थत िै। कु छ क्तविानों का मत िै क्तक सूर का जन्म सीिी नामक ग्राम में एक क्तनधयन सारस्वत ब्राह्मण पररवार में िुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रिने लगे थे। सूरदास के क्तपता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मािंध िोने के क्तवषय में मतभेद िै। प्रारिंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रिते थे। विीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचायय से िुई और वे उनके क्तशष्य बन गए। वल्लभाचायय ने उनको पुक्तिमागय में दीक्तित कर के कृ ष्णलीला के पद गाने का आदेश क्तदया। सूरदास की मृत्यु गोवधयन के क्तनकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में िुई।
  • 4. ऊधौ , तुम िो अक्तत बड़भागी । अपरस रित सनेि तगा तैं , नाक्तिन मन अनुरागी। पुरइक्तन पात रित जल भीतर , ता रस देि न दागी। ज्यों जल मािंि तेल की गागरर , बूाँद न ताकौं लागी । प्रीक्तत - नदी में पााँव न बोरयौ, दृक्ति न रूप परागी। 'सूरदास ' अबला िम भोरी , गुर चााँटी ज्यों पागी ॥
  • 5. व्याख्या प्रस्तुत पद में गोक्तपयों ने उदधव के ज्ञान-मागय और योग-साधना को नकारते िुए उनकी प्रेम-सिंबिंधी उदासीनता को लक्ष्य कर व्यिंग्य क्तकया िै साथ िी भक्ति-मागय में अपनी आस्था व्यि करते िुए किा िै- िे उद्धव जी! आप बड़े भाग्यशाली िैं जो प्रेम के बिंधन में निीं बिंधे और न आपके मन में क्तकसी के प्रक्तत कोई अनुराग जगा। क्तजस प्रकार जल में रिनेवाले कमल के पत्ते पर एक भी बूाँद निीं ठिरती,क्तजस प्रकार तेल की गगरी को जल में क्तभगोने पर उस पानी की एक भी बूाँद निीं ठिर पाती,ठीक उसी प्रकार आप श्री कृ ष्ण रूपी प्रेम की नदी के साथ रिते िुए भी उसमें स्नान करने की बात तो दूर आप पर तो श्रीकृ ष्ण-प्रेम की एक छींट भी निीं पड़ी।
  • 6. अत: आप भाग्यशाली निीं िैं क्योंक्तक िम तो श्रीकृ ष्ण के प्रेम की नदी में डूबती-उतराती रिती िैं।िे उद्धव जी! िमारी दशा तो उस चींटी के समान िै जो गुड़ के प्रक्तत आकक्तषयत िोकर विााँ जाती और विीं पर क्तचपक जाती िै और चािकर क्तभ अपने को अलग निीं कर पाती और अपने अिंक्ततम सााँस तक बस विीं क्तचपके रिती िै।
  • 7. संदेशा क्तनगुयण की उपासना के प्रक्तत उद्धव की अनुरक्ति पर व्यिंग्य करते िुए गोक्तपयों ने किना चािा िै क्तक िम आप जैसे सिंसार से क्तवरि निीं िो सकते। िम सािंसाररक िैं। अत:एक दूजे से प्रेम करते िैं । िमारे मन में कृ ष्ण की भक्ति और अनुरक्ति िै। कृ ष्ण से अलग िमारी कोई पिचान निीं। िम अबलाओिंके क्तलए ज्ञान-मागय बड़ा कक्तठन िै।
  • 8. मन की मन िी मााँझ रिी । कक्तिए जाइ कौन पै ऊधौ , नािीं परत किी । अवक्तध असार आस आवन की , तन - मन क्तवथा सिी। अब इन जोग साँदेसक्तन सुक्तन-सुक्तन ,क्तवरक्तिक्तन क्तवरि दिी । चािक्तत िुती गुिारर क्तजतक्तििं तैं , उत तैं धार बिी । 'सूरदास' अब धीर धरक्तििं क्यौं , मरजादा न लिी ॥
  • 9. व्याख्या श्री कृ ष्ण के क्तमत्र उद्धव जी जब कृ ष्ण का सिंदेश सुनाते िैं क्तक वे निीं आ सकते , तब गोक्तपयों का हृदय मचल उठता िै और अधीर िोकर उद्धव से किती िैं िे उद्धव जी! िमारे मन की बात तो िमारे मन में िी रि गई। िम कृ ष्ण से बिुत कु छ किना चाि रिी थीं, पर अब िम कै से कि पाएाँगी। िे उद्धव जी! जो बातें िमें के वल और के वल श्री कृ ष्ण से किनी िै, उन बातों को क्तकसी और को किकर सिंदेश निीं भेज सकती। श्री कृ ष्ण ने जाते समय किा था क्तक काम समाप्त कर वे जल्दी िी लौटेंगे। िमारा तन और मन उनके क्तवयोग में दुखी िै, क्तिर भी िम उनके वापसी के समय का इिंतजार कर रिी थीं । मन में बस एक आशा थी क्तक वे आएाँगे तो िमारे सारे दुख दूर िो जाएाँगे।
  • 10. परन्तु; श्री कृ ष्ण ने िमारे क्तलए ज्ञान-योग का सिंदेश भेजकर िमें और भी दुखी कर क्तदया। िम तो पिले िी दुखी थीं, अब इस सिंदेश ने तो िमें किीं का निीं छोड़ा। िे उद्धव जी! िमारे क्तलए यि क्तवपदा की घड़ी िै,ऐसे में िर कोई अपने रिक को आवाज लगाता िै। पर, िमारा दुभायग्य देक्तखए क्तक ऐसी घड़ी में क्तजसे िम पुकारना चािती िैं, विी िमारे दुख का कारण िै। िे उद्धव जी! प्रेम की मयायदा िै क्तक प्रेम के बदले प्रेम िी क्तदया जाए ,पर श्री कृ ष्ण ने िमारे साथ छल क्तकया िै। उन्िोने मयायदा का उल्लिंघन क्तकया िै। अत: अब िमारा धैयय भी जवाब दे रिा िै।
  • 11. संदेशा प्रेम का प्रसार बस प्रेम के आदान-प्रदान से िी सिंभव िै और यिी इसकी मयायदा भी िै। प्रेम के बदले योग का सिंदेशा देकर श्री कृ ष्ण ने मयायदा को तोड़ा,तो उन्िे भी जली-कटी सुननी पड़ी। और प्रेम के बदले योग का पाठ पढ़ानेवाले उद्धव को भी व्यिंग्य और अपमान झेलना पड़ा। अत: क्तकसी के प्रेम का अनादर करना अनुक्तचत िै।
  • 12. िमारे िरर िाररल की लकरी । मन - क्रम - वचन निंद - निंदन उर , यि दृढ़ करर पकरी । जागत सोवत स्वप्न क्तदवस - क्तनक्तस , कान्ि - कान्ि जकरी । सुनत जोग लागत िै ऐसो , ज्यौं करूई ककरी । सु तौ ब्याक्तध िमकौं लै आए , देखी सुनी न करी । यि तौ 'सूर' क्ततनक्तििं लै सौंपौ , क्तजनके मन चकरी ।।
  • 13. व्याख्या मिाकक्तव सूरदास िारा रक्तचत ‘सूरसागर’ के पााँचवें खण्ड से उद्धॄत इस पद में गोक्तपयों ने उद्धव के योग -सन्देश के प्रक्तत अरुक्तच क्तदखाते िुए कृ ष्ण के प्रक्तत अपनी अनन्य भक्ति को व्यि क्तकया िै ।गोक्तपयााँ किती िैं क्तक िे उद्धव ! कृ ष्ण तो िमारे क्तलये िाररल पिी की लकड़ी की तरि िैं । जैसे िाररल पिी उड़ते वि अपने पैरों मे कोई लकड़ी या क्ततनका थामे रिता िै और उसे क्तवश्वास िोता िै क्तक यि लकड़ी उसे क्तगरने निीं देगी , ठीक उसी प्रकार कृ ष्ण भी िमारे जीवन के आधार िैं । िमने मन कमय और वचन से नन्द बाबा के पुत्र कृ ष्ण को अपना माना िै । अब तो सोते - जागते या सपने में क्तदन - रात िमारा मन बस कृ ष्ण-कृ ष्ण का जाप करते रिता िै ।
  • 14. िे उद्धव ! िम कृ ष्ण की दीवानी गोक्तपयों को तुम्िारा यि योग - सन्देश कड़वी ककड़ी के समान त्याज्य लग रिा िै । िमें तो कृ ष्ण - प्रेम का रोग लग चुका िै, अब िम तुम्िारे किने पर योग का रोग निीं लगा सकतीं क्योंक्तक िमने तो इसके बारे में न कभी सुना, न देखा और न कभी इसको भोगा िी िै । िमारे क्तलये यि ज्ञान-मागय सवयथा अनजान िै । अत: आप ऎसे लोगों को इसका ज्ञान बााँक्तटए क्तजनका मन चिंचल िै अथायत जो क्तकसी एक के प्रक्तत आस्थावान निीं िैं।
  • 15. संदेशा भक्ति और आस्था क्तितान्त व्यक्तिगत भाव हैं ।अत: इसके मागग और पद्धक्तत का चुिाव भी व्यक्तिगत ही होता है । क्तकसी पर अपिे क्तवचार थोपिा या अपिी पद्धक्तत को ही श्रेष्ठ कहिा और अन्य को व्यथग बतािा तकग -संगत िहीं होता । प्रेम कोई व्यापार िहीं है क्तिसमेंहाक्ति-लाभ की क्तचन्ता की िाय ।
  • 16. िरर िैं राजनीक्तत पक्ति आए । समुझी बात कित मधुकर के , समाचार सब पाए । इक अक्तत चतुर िुतै पक्तिलें िीं , अब गुरुग्रिंथ पिाए । बढ़ी बुक्तद्ध जानी जो उनकी , जोग साँदेस पठाए । ऊधौ लोग भले आगे के , पर क्तित डोलत धाए । अब अपने मन िे र पाईिें , चलत जु िुते चुराए । तें क्यौं अनीक्तत करें आपुन ,जे और अनीक्तत छु ड़ाए । राज धरम तो यिै ' सूर ' , जो प्रजा न जाक्तििं सताए ॥
  • 17. व्याख्या उद्धव िारा कृ ष्ण के सन्देश को सुनकर तथा उनके मिंतव्य को जानकर गोक्तपयों को बिुत दुख िुआ । गोक्तपयााँ बात करती िुई व्यिंग्यपूवयक किती िैं क्तक वे तो पिले से िी बिुत चतुर - चालाक थे ।अब राजनीक्ततक कारण से मथुरा गये िैं तो शायद राजनीक्तत शास्त्र मे भी मिारत िाक्तसल कर ली िै और िमारे साथ िी राजनीक्तत कर रिे िैं ।विााँ जाकर शायद उनकी बुक्तद्ध बढ़ गई िै तभी तो िमारे बारे में सब कु छ जानते िुए भी उन्िोंने िमारे पास उद्धव से योग का सन्देश भेजा िै । उद्धव जी का इसमे कोई दोष निीं । वे तो अगले ज़माने के आदमी की तरि दूसरों के कल्याण करने में िी आनन्द का अनुभव करते िैं ।
  • 18. िे उद्धव जी ! यक्तद कृ ष्ण ने िमसे दूर रिने का क्तनणयय ले िी क्तलया िै तो िम भी कोई मरे निी जा रिीं । आप जाकर कक्तिएगा क्तक यिााँ से मथुरा जाते वि श्रीकृ ष्ण िमारा मन भी अपने साथ ले गए थे । िमारा मन तो उन्िीं के साथ िै ;उसे वे वापस कर दें । अत्याचारी का दमन कर प्रजा को अत्याचार से मुक्ति क्तदलाने के क्तलए वे मथुरा गए थे । परन्तु ; विााँ जाकर वे स्वयिं िम पर अत्याचार कर रिे िैं । कक्तिएगा क्तक एक अत्याचारी को कोई िक़ निीं क्तक वि क्तकसी दूसरे अत्याचारी पर ऊाँ गली उठाए । िे उद्धव जी ! आप उनसे कक्तिएगा क्तक वे िमारे राजा िैं और राजा िोने के नाते उन्िें कोई भी ऐसा काम निीं करना चाक्तिये क्तजससे उनकी प्रजा को क्तकसी भी प्रकार से , कोई भी कि पिुाँचे । यिी एक राजा का धमय िै ।
  • 19. संदेशा गोक्तपयों ने अपनी बातों से जताया िै क्तक वे कृ ष्ण से अलग िो िी निीं सकतीं । उनका मन सदा कृ ष्ण मे िी लगा रिता िै । गोक्तपयों ने अगले "जमाने का आदमी" किकर उद्धव पर तो व्यिंग्य क्तकया िी िै बात िी बात में उन्िोंने श्रीकृ ष्ण को उलािना भी क्तदया िै क्तक योग सन्देश भेजकर उन्िोंने अत्याचार क्तकया िै । मात्र एक लक्ष्य को पाने के क्तलए अपनों से मुाँि मोड़ना या भूल जाना बुक्तद्धमानी निीं किी जाती । िर िाल में अपने धमय का क्तनवायि करना चाक्तिए ।