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Index
1. कर्म क
े प्रकार
२. स्वेदन की पररभाषा
3. स्वेदन क
े भेद
4. स्वेदन कर्म
5. स्वेदन कर्म की ववधि
6. स्वेदन क
े प्रकार :-
(a) सावि स्वेदन
(b) वनरावि स्वेदन
7. वनरावि स्वेदन क
े भेद
(i) व्यायार्
(ii) उठा गृह
(iii) भारी ओढने क
े वस्र
(iv)भूख
(v) आदद ठण्णवीयम द्रवों का अधिक पीना
(vi) भय
(vii) क्रोश
(viii)
(ix) युद्ध
(X) आतप
कर्म :-
(1)पूर्व कर्व- (i)
(ii) स्र्ेदन
(2)प्रधान कर्व – (i) र्र्न
(ii) वर्रेचन
(iii) नास्य
(iV) बस्स्ि
(V) रक्ि र्ोक्षण
(3)पश्चाि कर्व–
पंचकर्व क
े पश्चाि जो आहार-बबहार िथा ददनचयाव का सेर्न रोगी से करर्ाया जािा है उसे पश्चाि कर्व
कहिे हैं।
स्वेदन की परिभाषा :-
र्ह क्रिया स्जसक
े अन्िगवि शरीर का स्र्ेद या पसीना ननकाला जािा है
िथा जो शरीर की जकड़ाहट, भारीपन, ठण्डापन आदद को दूर करिा है।
उसे स्र्ेद या स्र्ेदन कर्व कहिे हैं
चिक क
े अनुसाि—
अतःस्वेदाः प्रवक्ष्यन्ते यैयमथावत्प्प्रयोजितैः । स्वेदसाधयाः प्रशाम्यजन्त गदा
वातकफात्प्र्काः ॥३॥
स्नेहन क
े बाद स्र्ेदन क्रिया क
े वर्धधर्ि् प्रयोग से स्र्ेद क्रिया से शान्ि
होने र्ाले र्ाि-कफ क
े रोग शान्ि हो जािे हैं।। ३ ।।
शुष्काण्यपप हि काष्ठानन स्नेिस्वेदोपपादनैः । नर्यजन्त यथान्यायं ककं
पुनिीवतो निान् ॥
जब सूखे हुए काष्ठ को भी वर्धधपूर्वक स्नेहन स्र्ेदन करने क
े
बाद अपनी इच्छानुसार स्जधर चाहे उधर घुर्ाया जा सकिा है
िो क्या जीर्धारी पुरुष का स्नेहन और स्र्ेदन करने क
े बाद
अपनी इच्छानुसार यथास्थान नहीं घुर्ाया जा सकिा है? अथावि्
अर्श्य ही घुर्ाया जा सकिा है॥५॥
स्वेदन क
े भेद :-
र्िपषम वाग्भट क
े अनुसाि –
(1) साग्रि स्वेदन :- (i) तापस्वेद
(ii) उपनाहस्र्ेद
(iii) ऊष्र्स्र्ेद
(iv) द्रर्स्र्ेद
(2) ग्रनराग्रि स्वेदन
साग्रि स्वेदन :-
तापस्वेद:-
तापोऽजग्नतप्तवसनफालिस्ततलाहदभभः
-उक्ि चारों भेदों र्ें से प्रथर् िापस्र्ेद का पररचय प्रस्िुि है—
यह र्ह स्र्ेदन वर्धध है स्जसर्ें आग र्ें िपाये गये र्स्र, फाल
(रुई या क
े र्ल रुई से बनाये गये र्स्रों का ग्रहण क्रकया गया है)
िथा हाथ-पैर क
े िलुओं आदद का आग र्ें िपाकर स्र्ेदन क्रकया
जािा है।।१।।
उपनािस्वेद:-
उपनािो वचाककण्वशताह्लादेवदारुभभः । धान्यैः सर्स्तैगमन्धैश्च
िास्नैिण्डिटाभर्षैः॥ २ ॥ उहिक्तलवणैः स्नेिचुक्रतक्रपयःप्लुतैः ।
क
े वले पवने, श्लेष्र्संसृष्टे सुिसाहदभभः ॥ ३ ॥ पपत्तेन पद्र्काद्यैस्तु
साल्वणाखयैः पुनःपुनः ।
–बालर्च, क्रकण्र् (सुराबीज), सौंफ या सोया, देर्दार, जौ, गेहूूँ
आदद धान्य, नालुका (र्ोटी िज) आदद सुगस्न्धि द्रव्य, रासना,
रेड़ की जड़ िथा र्ांस को लेकर पयावप्ि नर्क मर्लाकर स्नेह
(घी) आदद स्स्नग्धद्रव्य, चुि, िि और दूध इन सबको
पकाकर क
े र्ल र्ािवर्कारों र्ें बाूँधा जािा है। यदद र्ािदोष
क
े साथ कफदोष भी मर्ला हो िो सुरसादद गण की
औषधधयों क
े उपनाह का प्रयोग करना चादहए और यदद
र्ािदोष क
े साथ वपत्तदोष मर्ला हो िो पद्र्कादद गण
िथा साल्र्ण नार्क योगों द्र्ारा ननमर्वि उपनाहों का
बार-बार प्रयोग करना चादहए ।।
ऊष्र्स्वेद–
ऊष्र्ा तूत्प्कारिकालोष्टकपालोपलपासुभभः । पत्रभङ्गन धान्यन किा
सकतातुषः ॥ ६ ॥
अनेकोपायसन्तप्तैः प्रयोज्यो देशकालतः ।
उत्काररका ( गरर्-गरर् रोटी या लपसी आदद) से, मर्ट्टी क
े
ढेले से, कपाल (फ
ू टे हुए घड़े क
े टुकड़ों) से, पत्थर क
े टुकड़ों से,
पांसु (धूल, मर्ट्टी या बालू) से, परभंग (भूमर् पर पत्तों को
जलाकर, उस पर पुनः पत्तों को बबछाकर लेटने ) से; overline
35G धान आदद को उबाल कर उसक
े ऊपर लेटने से; करीष
(गोबर), मसकिा (बालू) िथा िुष (भूसी) को जलाकर या गरर्
कर उसक
े ऊपर बबछाई हुई चारपायी पर लेटने से, इनक
े
अनिररक्ि वर्वर्ध वर्धधयों से िाप देकर यह स्र्ेदन क्रकया जािा
है। इसका प्रयोग देश-काल क
े अनुसार ही करें ।। ६ ।।
िवस्वेद–
भशगुवािणक
ै िण्डकिञ्िसुिसािमकात्
भशिीषवासावंशाक
म र्ालतीदीर्मवृन्ततः । पत्रभङ्गैवमचाद्येश्च
र्ांसैश्चानूपवारििैः ॥ ८॥ दशर्ूलेन च पृथक् सहितैवाम
यथार्लर्् । स्नेिवद्भभः सुिाशक्तवारिक्षीिाहदसाधधतैः ॥ ९
॥ क
ु म्भीगमलन्तीनामडीवाम पूिनयत्प्वा रुिाहदमतर्् ।
वाससाऽऽच्छाहदतं गात्रं जस्नग्धं भसञ्चेद्यथासुखर्् ॥
सहजन, र्ारणक (क
ं टककरंज), एरण्ड, करंज, िुलसी,
र्निुलसी, मसरस, अडूसा, बाूँस, आक, र्ालिी िथा
सोनापाठा-इन द्रव्यों क
े परसर्ूह अथर्ा र्ािनाशक अन्य
र्ृक्षों क
े परसर्ूह अथर्ा र्चादद गण क
े परसर्ूह अथर्ा
र्चा आदद र्े द्रव्य जो ऊपर उपनाहस्र्ेद (श्लोक ३ ) र्ें
कहे गये हैं अथर्ा सूअर आदद अनूप देश र्ें होने र्ाले
प्राणणयों क
े र्ांस अथर्ा र्छली आदद पानी र्ें होने र्ाले
प्राणणयों क
े र्ांस या दशर्ूल क
े द्रव्यों को दोषानुसार
अलग-अलग लेकर अथर्ा सबको एक क
े साथ लेकर सुरा,
मसरका, जल, दूध र्ें पकाकर उसर्ें िैल-घी आदद स्नेह
मर्लाकर उसे छान क्रफर इसे घड़ा र्ें या झंझर ( सुराही)
र्ें या नाली (वपचकारी) आदद र्ें भरकर रोगयुक्ि अंग पर
अभ्यंग करने क
े बाद कपड़े से उस अंग को ढककर
गुनगुने उस द्रर् का सेर्न करें।
स्वेदन कर्म:-
आयुर्ेद की पंचकर्व धचक्रकत्सा पद्धनि र्ें स्र्ेदन कर्व का
वर्मशष्ट स्थान है। स्र्ेदन कर्व पंचकर्व का एक पूर्व कर्व है
अथावि रोगी व्यस्क्ि का पंचकर्व धचक्रकत्सा पद्धनि से इलाज
करने से पूर्व क
ु छ वर्मशष्ट कर्व क्रकये जािे हैं जैसे – अभ्यंग
करना , स्र्ेदन करना । ये ही पंचकर्व पद्धनि र्ें पूर्व कर्व
कहलािे हैं।
स्र्ेदन का अथव होिा शरीर से स्र्ेद अथावि पसीने को बाहर
ननकालना। इसे हर् र्िवर्ान र्ें प्रचमलि स्टीर् थेरेपी भी कह
सकिे हैं। लेक्रकन स्पा सेण्टर पर दी जाने र्ाली ये स्टीर् थेरेपी
स्र्ेदन कर्व से पूणविया मभन्न है। स्टीर् बाथ र्ें एक द्रोणी क
े
र्ाध्यर् से पानी की गर्व भाप से नहलाया जािा है एर्ं इसक
े
अपने र्हत्र् हैं। लेक्रकन स्र्ेदन कर्व वर्मशष्ट रोग र्ें वर्मशष्ट
प्रकार से ददया जािा है। स्र्ेदन कर्व की वर्मभन्न वर्धधयां होिी है
जो रोगी क
े रोग का पररक्षण करने क
े बाद िय की जािी हैं।
स्वेदन कर्म की पवधध :-
स्र्ेदन’ करने से पूर्व व्यस्क्ि क
े रोग और प्रकृ नि का पररक्षण
क्रकया जािा है। उसी क
े आधार पर स्र्ेदनकर्व की वर्धध का चयन
क्रकया जािा है। इसे आप इस प्रकार सर्झ सकिें है क्रक जैसे कोई
व्यस्क्ि शारीररक रूप से कर्जोर है िो उसे र्ध्यर् प्रकार का
स्र्ेदन ही ददया जािा है । क्योंक्रक प्रबल स्र्ेदन सहन करने र्ें
असर्वथिा होगी। चयननि वर्धध से व्यस्क्ि को उष्र्ा दी जािी है
स्जससे उसक
े शरीर से पसीना ननकल सक
े । ननधावररि सर्य िक
उष्र्ा देने पर शरीर का स्र्ेदन अच्छी िरह हो जािा है, स्जसका
पररक्षण धचक्रकत्सक द्र्ारा क्रकया जािा है।
स्वेदन क
े प्रकाि :-
(1) साधग्र स्र्ेदन
(2) ननराधग्र स्र्ेदन
(1)साधि स्वेदन :-
ऐसे सभी स्र्ेदन जो अस्ग्न क
े संयोग संपन्न कराये
जािे है।
(2) ननिाधि स्वेदन :-
स्वदो हितस्त्प्वनाग्नेयो वाते र्ेदः कफावृते ।
अनाग्नेय स्र्ेद – प्रायः सभी स्र्ेदन अस्ग्न क
े संयोग
से सम्पन्न कराये जािे हैं। क
ु छ स्र्ेदन अस्ग्न का
प्रयोग नहीं होिा। इस प्रकार क
े स्र्ेदों का प्रयोग
र्ेदोधािु िथा कफदोष से आर्ृि हुए र्ािदोष से होने
र्ाले (ऊरुस्िम्भ आदद) रोगों र्ें क्रकया जािा है।
ननिाधि स्वेदन :-
र्िपषम वाग्भट क
े अनुसाि –
ननवातं गृिर्ायासो गुरुप्राविणं भयर्् ।। २८ । उपनािािवक्रोधा
भूरिपानं क्षुधाऽऽतपः ।
दसवर्ध अनाग्नेय स्र्ेद- १. ननर्ाि घर र्ें रहना, २.
आयास (वर्वर्ध प्रकार क
े पररश्रर्साध्य कायों को करिे
रहना), ३. गुरुप्रार्रण (र्ोटे कम्बल अथर्ा रजाई आदद को
ओढे रहना), ४. भय ( यह भी पसीना लाने का एक उपाय
है), ५. उपनाह ( ऊन की पट्टी से या साधारण पट्टी से
कसकर बांधे रहना), ६. आहब ( लड़ाई या क
ु श्िी ), ७.
िोध करना, ८. अधधक र्ारा र्ें र्ादक पदाथों का सेर्न
करना, ९. भूखा रहना िथा १०. आिप ( धूप का सेकना
).
चिक क
े अनुसाि –
व्यायार् उष्णसदनं गुरुप्राविणं क्षुधा । बिुपानं
भयक्रोधावुपनािािवातपाः ॥६४॥
स्वेदयजन्त दशैतानन निर्जग्नगुणते
(i) व्यायार्
(ii) उष्णगृह
(iii) भारी ओढने क
े वस्र
(iv)भूख
(v) र्द्यआदद उष्णवीयम द्रवों का अधिक पीना
(vi) भय
(vii) िोध
(viii) उपनाह
(ix) युद्ध
(X) आतप
ये दश अनग्नन स्वेद अर्ामत अग्नन क
े साक्षात् संयोग क
े विना ही शरीर
का स्वेदन करते हैं। व्यायार् का तात्पयम दण्ड िैठक करना या आपस
र्ें क
ु श्ती लड़ना है। चक्रपाणण क
े र्तानुसार उष्ण सदन का तात्पयम
उस गर्म घर से है जो विना अग्नन-संयोग क
े ही गर्म हो जैसे जजस घर
र्ें ग्खड़की या जंगले न हों (वनजामलक) और दीवाल र्ोटी (घनणभणि)
हो तो वह घर गर्ी क
े ददनों र्ें विना अग्ननसंयोग vec Phi ही गर्म
रहता है। गुरु प्रावरण का तात्पयम र्ोटे ओढ़ने से है। शीतवपि, उददम
रोग र्ें शरीर र्ें चर्ेली का तेल और गेरू लगाकर काला कम्िल
ओढ़ाकर सुला ददया जाता है या शीत ज्वर र्ें अधिक गर्म कपड़ा
ओढ़ा ददया जाता है जजससे पसीना वनकल जाता है। यहााँ उपनाह की
अग्ननस्वेद र्ें गणना की है और सुश्रुत ने इसे अग्नन-स्वेदन र्ाना है।
वस्तुतः उपनाह दोनों प्रकार का होता है, यर्ा- 'उपनाहो विवविः,
साग्ननरनग्ननश्च तर यः साग्ननरुपनाहः स सङ्कर एव िोद्धव्यः'
(चक्रः)। जि क
ु ष्ठ, अगर, राई आदद गर्म औषधियों का उपनाह
िााँिकर कपड़े से िााँि ददया जाता है तो उसे अनग्नन उपनाह स्वेद
कहा जाता है और जि वकसी वातघ्न द्रव्य को पीसकर गर्म कर िााँिा
जाता है तो उसे साग्नन उपनाह स्वेदन कहते हैं।
सुश्रुत क
े अनुसाि –
कफर्ेदोजन्वते वायौ ननवातातपगुरु
प्राविणननयुद्धाधवव्यायार्भािििणापषषः स्वेदर्ुत्प्पादयेहदनत'।
(सु.धच. ३२)
र्ायु क
े कफ और र्ेद से युक्ि होने पर र्ायरदहि स्थान,
धूप भारी ओखने क
े र्स्र, र्ल्लयुद्ध, व्यायार्, बोझ
उठाना िथा िोध आदद क
े द्र्ारा स्र्ेद ननकालना चादहए
॥१५॥
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  • 1. Index 1. कर्म क े प्रकार २. स्वेदन की पररभाषा 3. स्वेदन क े भेद 4. स्वेदन कर्म 5. स्वेदन कर्म की ववधि 6. स्वेदन क े प्रकार :- (a) सावि स्वेदन (b) वनरावि स्वेदन 7. वनरावि स्वेदन क े भेद (i) व्यायार् (ii) उठा गृह (iii) भारी ओढने क े वस्र (iv)भूख (v) आदद ठण्णवीयम द्रवों का अधिक पीना (vi) भय (vii) क्रोश (viii) (ix) युद्ध (X) आतप
  • 2. कर्म :- (1)पूर्व कर्व- (i) (ii) स्र्ेदन (2)प्रधान कर्व – (i) र्र्न (ii) वर्रेचन (iii) नास्य (iV) बस्स्ि (V) रक्ि र्ोक्षण (3)पश्चाि कर्व– पंचकर्व क े पश्चाि जो आहार-बबहार िथा ददनचयाव का सेर्न रोगी से करर्ाया जािा है उसे पश्चाि कर्व कहिे हैं। स्वेदन की परिभाषा :- र्ह क्रिया स्जसक े अन्िगवि शरीर का स्र्ेद या पसीना ननकाला जािा है िथा जो शरीर की जकड़ाहट, भारीपन, ठण्डापन आदद को दूर करिा है। उसे स्र्ेद या स्र्ेदन कर्व कहिे हैं चिक क े अनुसाि—
  • 3. अतःस्वेदाः प्रवक्ष्यन्ते यैयमथावत्प्प्रयोजितैः । स्वेदसाधयाः प्रशाम्यजन्त गदा वातकफात्प्र्काः ॥३॥ स्नेहन क े बाद स्र्ेदन क्रिया क े वर्धधर्ि् प्रयोग से स्र्ेद क्रिया से शान्ि होने र्ाले र्ाि-कफ क े रोग शान्ि हो जािे हैं।। ३ ।। शुष्काण्यपप हि काष्ठानन स्नेिस्वेदोपपादनैः । नर्यजन्त यथान्यायं ककं पुनिीवतो निान् ॥ जब सूखे हुए काष्ठ को भी वर्धधपूर्वक स्नेहन स्र्ेदन करने क े बाद अपनी इच्छानुसार स्जधर चाहे उधर घुर्ाया जा सकिा है िो क्या जीर्धारी पुरुष का स्नेहन और स्र्ेदन करने क े बाद अपनी इच्छानुसार यथास्थान नहीं घुर्ाया जा सकिा है? अथावि् अर्श्य ही घुर्ाया जा सकिा है॥५॥ स्वेदन क े भेद :- र्िपषम वाग्भट क े अनुसाि –
  • 4. (1) साग्रि स्वेदन :- (i) तापस्वेद (ii) उपनाहस्र्ेद (iii) ऊष्र्स्र्ेद (iv) द्रर्स्र्ेद (2) ग्रनराग्रि स्वेदन साग्रि स्वेदन :- तापस्वेद:- तापोऽजग्नतप्तवसनफालिस्ततलाहदभभः -उक्ि चारों भेदों र्ें से प्रथर् िापस्र्ेद का पररचय प्रस्िुि है— यह र्ह स्र्ेदन वर्धध है स्जसर्ें आग र्ें िपाये गये र्स्र, फाल (रुई या क े र्ल रुई से बनाये गये र्स्रों का ग्रहण क्रकया गया है)
  • 5. िथा हाथ-पैर क े िलुओं आदद का आग र्ें िपाकर स्र्ेदन क्रकया जािा है।।१।। उपनािस्वेद:- उपनािो वचाककण्वशताह्लादेवदारुभभः । धान्यैः सर्स्तैगमन्धैश्च िास्नैिण्डिटाभर्षैः॥ २ ॥ उहिक्तलवणैः स्नेिचुक्रतक्रपयःप्लुतैः । क े वले पवने, श्लेष्र्संसृष्टे सुिसाहदभभः ॥ ३ ॥ पपत्तेन पद्र्काद्यैस्तु साल्वणाखयैः पुनःपुनः । –बालर्च, क्रकण्र् (सुराबीज), सौंफ या सोया, देर्दार, जौ, गेहूूँ आदद धान्य, नालुका (र्ोटी िज) आदद सुगस्न्धि द्रव्य, रासना, रेड़ की जड़ िथा र्ांस को लेकर पयावप्ि नर्क मर्लाकर स्नेह (घी) आदद स्स्नग्धद्रव्य, चुि, िि और दूध इन सबको पकाकर क े र्ल र्ािवर्कारों र्ें बाूँधा जािा है। यदद र्ािदोष क े साथ कफदोष भी मर्ला हो िो सुरसादद गण की औषधधयों क े उपनाह का प्रयोग करना चादहए और यदद
  • 6. र्ािदोष क े साथ वपत्तदोष मर्ला हो िो पद्र्कादद गण िथा साल्र्ण नार्क योगों द्र्ारा ननमर्वि उपनाहों का बार-बार प्रयोग करना चादहए ।। ऊष्र्स्वेद– ऊष्र्ा तूत्प्कारिकालोष्टकपालोपलपासुभभः । पत्रभङ्गन धान्यन किा सकतातुषः ॥ ६ ॥ अनेकोपायसन्तप्तैः प्रयोज्यो देशकालतः । उत्काररका ( गरर्-गरर् रोटी या लपसी आदद) से, मर्ट्टी क े ढेले से, कपाल (फ ू टे हुए घड़े क े टुकड़ों) से, पत्थर क े टुकड़ों से, पांसु (धूल, मर्ट्टी या बालू) से, परभंग (भूमर् पर पत्तों को जलाकर, उस पर पुनः पत्तों को बबछाकर लेटने ) से; overline 35G धान आदद को उबाल कर उसक े ऊपर लेटने से; करीष (गोबर), मसकिा (बालू) िथा िुष (भूसी) को जलाकर या गरर्
  • 7. कर उसक े ऊपर बबछाई हुई चारपायी पर लेटने से, इनक े अनिररक्ि वर्वर्ध वर्धधयों से िाप देकर यह स्र्ेदन क्रकया जािा है। इसका प्रयोग देश-काल क े अनुसार ही करें ।। ६ ।। िवस्वेद– भशगुवािणक ै िण्डकिञ्िसुिसािमकात् भशिीषवासावंशाक म र्ालतीदीर्मवृन्ततः । पत्रभङ्गैवमचाद्येश्च र्ांसैश्चानूपवारििैः ॥ ८॥ दशर्ूलेन च पृथक् सहितैवाम यथार्लर्् । स्नेिवद्भभः सुिाशक्तवारिक्षीिाहदसाधधतैः ॥ ९ ॥ क ु म्भीगमलन्तीनामडीवाम पूिनयत्प्वा रुिाहदमतर्् । वाससाऽऽच्छाहदतं गात्रं जस्नग्धं भसञ्चेद्यथासुखर्् ॥ सहजन, र्ारणक (क ं टककरंज), एरण्ड, करंज, िुलसी, र्निुलसी, मसरस, अडूसा, बाूँस, आक, र्ालिी िथा सोनापाठा-इन द्रव्यों क े परसर्ूह अथर्ा र्ािनाशक अन्य
  • 8. र्ृक्षों क े परसर्ूह अथर्ा र्चादद गण क े परसर्ूह अथर्ा र्चा आदद र्े द्रव्य जो ऊपर उपनाहस्र्ेद (श्लोक ३ ) र्ें कहे गये हैं अथर्ा सूअर आदद अनूप देश र्ें होने र्ाले प्राणणयों क े र्ांस अथर्ा र्छली आदद पानी र्ें होने र्ाले प्राणणयों क े र्ांस या दशर्ूल क े द्रव्यों को दोषानुसार अलग-अलग लेकर अथर्ा सबको एक क े साथ लेकर सुरा, मसरका, जल, दूध र्ें पकाकर उसर्ें िैल-घी आदद स्नेह मर्लाकर उसे छान क्रफर इसे घड़ा र्ें या झंझर ( सुराही) र्ें या नाली (वपचकारी) आदद र्ें भरकर रोगयुक्ि अंग पर अभ्यंग करने क े बाद कपड़े से उस अंग को ढककर गुनगुने उस द्रर् का सेर्न करें। स्वेदन कर्म:- आयुर्ेद की पंचकर्व धचक्रकत्सा पद्धनि र्ें स्र्ेदन कर्व का वर्मशष्ट स्थान है। स्र्ेदन कर्व पंचकर्व का एक पूर्व कर्व है अथावि रोगी व्यस्क्ि का पंचकर्व धचक्रकत्सा पद्धनि से इलाज
  • 9. करने से पूर्व क ु छ वर्मशष्ट कर्व क्रकये जािे हैं जैसे – अभ्यंग करना , स्र्ेदन करना । ये ही पंचकर्व पद्धनि र्ें पूर्व कर्व कहलािे हैं। स्र्ेदन का अथव होिा शरीर से स्र्ेद अथावि पसीने को बाहर ननकालना। इसे हर् र्िवर्ान र्ें प्रचमलि स्टीर् थेरेपी भी कह सकिे हैं। लेक्रकन स्पा सेण्टर पर दी जाने र्ाली ये स्टीर् थेरेपी स्र्ेदन कर्व से पूणविया मभन्न है। स्टीर् बाथ र्ें एक द्रोणी क े र्ाध्यर् से पानी की गर्व भाप से नहलाया जािा है एर्ं इसक े अपने र्हत्र् हैं। लेक्रकन स्र्ेदन कर्व वर्मशष्ट रोग र्ें वर्मशष्ट प्रकार से ददया जािा है। स्र्ेदन कर्व की वर्मभन्न वर्धधयां होिी है जो रोगी क े रोग का पररक्षण करने क े बाद िय की जािी हैं। स्वेदन कर्म की पवधध :- स्र्ेदन’ करने से पूर्व व्यस्क्ि क े रोग और प्रकृ नि का पररक्षण क्रकया जािा है। उसी क े आधार पर स्र्ेदनकर्व की वर्धध का चयन क्रकया जािा है। इसे आप इस प्रकार सर्झ सकिें है क्रक जैसे कोई
  • 10. व्यस्क्ि शारीररक रूप से कर्जोर है िो उसे र्ध्यर् प्रकार का स्र्ेदन ही ददया जािा है । क्योंक्रक प्रबल स्र्ेदन सहन करने र्ें असर्वथिा होगी। चयननि वर्धध से व्यस्क्ि को उष्र्ा दी जािी है स्जससे उसक े शरीर से पसीना ननकल सक े । ननधावररि सर्य िक उष्र्ा देने पर शरीर का स्र्ेदन अच्छी िरह हो जािा है, स्जसका पररक्षण धचक्रकत्सक द्र्ारा क्रकया जािा है। स्वेदन क े प्रकाि :- (1) साधग्र स्र्ेदन (2) ननराधग्र स्र्ेदन (1)साधि स्वेदन :- ऐसे सभी स्र्ेदन जो अस्ग्न क े संयोग संपन्न कराये जािे है।
  • 11. (2) ननिाधि स्वेदन :- स्वदो हितस्त्प्वनाग्नेयो वाते र्ेदः कफावृते । अनाग्नेय स्र्ेद – प्रायः सभी स्र्ेदन अस्ग्न क े संयोग से सम्पन्न कराये जािे हैं। क ु छ स्र्ेदन अस्ग्न का प्रयोग नहीं होिा। इस प्रकार क े स्र्ेदों का प्रयोग र्ेदोधािु िथा कफदोष से आर्ृि हुए र्ािदोष से होने र्ाले (ऊरुस्िम्भ आदद) रोगों र्ें क्रकया जािा है। ननिाधि स्वेदन :- र्िपषम वाग्भट क े अनुसाि – ननवातं गृिर्ायासो गुरुप्राविणं भयर्् ।। २८ । उपनािािवक्रोधा भूरिपानं क्षुधाऽऽतपः ।
  • 12. दसवर्ध अनाग्नेय स्र्ेद- १. ननर्ाि घर र्ें रहना, २. आयास (वर्वर्ध प्रकार क े पररश्रर्साध्य कायों को करिे रहना), ३. गुरुप्रार्रण (र्ोटे कम्बल अथर्ा रजाई आदद को ओढे रहना), ४. भय ( यह भी पसीना लाने का एक उपाय है), ५. उपनाह ( ऊन की पट्टी से या साधारण पट्टी से कसकर बांधे रहना), ६. आहब ( लड़ाई या क ु श्िी ), ७. िोध करना, ८. अधधक र्ारा र्ें र्ादक पदाथों का सेर्न करना, ९. भूखा रहना िथा १०. आिप ( धूप का सेकना ). चिक क े अनुसाि – व्यायार् उष्णसदनं गुरुप्राविणं क्षुधा । बिुपानं भयक्रोधावुपनािािवातपाः ॥६४॥ स्वेदयजन्त दशैतानन निर्जग्नगुणते (i) व्यायार् (ii) उष्णगृह
  • 13. (iii) भारी ओढने क े वस्र (iv)भूख (v) र्द्यआदद उष्णवीयम द्रवों का अधिक पीना (vi) भय (vii) िोध (viii) उपनाह (ix) युद्ध (X) आतप ये दश अनग्नन स्वेद अर्ामत अग्नन क े साक्षात् संयोग क े विना ही शरीर का स्वेदन करते हैं। व्यायार् का तात्पयम दण्ड िैठक करना या आपस र्ें क ु श्ती लड़ना है। चक्रपाणण क े र्तानुसार उष्ण सदन का तात्पयम उस गर्म घर से है जो विना अग्नन-संयोग क े ही गर्म हो जैसे जजस घर र्ें ग्खड़की या जंगले न हों (वनजामलक) और दीवाल र्ोटी (घनणभणि) हो तो वह घर गर्ी क े ददनों र्ें विना अग्ननसंयोग vec Phi ही गर्म रहता है। गुरु प्रावरण का तात्पयम र्ोटे ओढ़ने से है। शीतवपि, उददम रोग र्ें शरीर र्ें चर्ेली का तेल और गेरू लगाकर काला कम्िल ओढ़ाकर सुला ददया जाता है या शीत ज्वर र्ें अधिक गर्म कपड़ा ओढ़ा ददया जाता है जजससे पसीना वनकल जाता है। यहााँ उपनाह की
  • 14. अग्ननस्वेद र्ें गणना की है और सुश्रुत ने इसे अग्नन-स्वेदन र्ाना है। वस्तुतः उपनाह दोनों प्रकार का होता है, यर्ा- 'उपनाहो विवविः, साग्ननरनग्ननश्च तर यः साग्ननरुपनाहः स सङ्कर एव िोद्धव्यः' (चक्रः)। जि क ु ष्ठ, अगर, राई आदद गर्म औषधियों का उपनाह िााँिकर कपड़े से िााँि ददया जाता है तो उसे अनग्नन उपनाह स्वेद कहा जाता है और जि वकसी वातघ्न द्रव्य को पीसकर गर्म कर िााँिा जाता है तो उसे साग्नन उपनाह स्वेदन कहते हैं। सुश्रुत क े अनुसाि – कफर्ेदोजन्वते वायौ ननवातातपगुरु प्राविणननयुद्धाधवव्यायार्भािििणापषषः स्वेदर्ुत्प्पादयेहदनत'। (सु.धच. ३२) र्ायु क े कफ और र्ेद से युक्ि होने पर र्ायरदहि स्थान, धूप भारी ओखने क े र्स्र, र्ल्लयुद्ध, व्यायार्, बोझ उठाना िथा िोध आदद क े द्र्ारा स्र्ेद ननकालना चादहए ॥१५॥