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रस
रस का अर्थ
रस का अर्थ होता है निचोड़। काव्य में जो आिन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आिे वाला
आिन्द अर्ाथत्रस लौककक ि होकर अलौककक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृ त में कहा गया है कक
"रसात्मकम्वाक्यम्काव्यम्" अर्ाथत्रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।
रस अन्त:करण की वह शक्क्त है, क्जसके कारण इक्न्ियााँ अपिा कायथ करती हैं, मि कल्पिा करता है, स्वप्ि
की स्मृनत रहती है। रस आिंद रूप है और यही आिंद ववशाल का, ववराट का अिुभव भी है। यही आिंद अन्य
सभी अिुभवों का अनतक्रमण भी है। आदमी इक्न्ियों पर संयम करता है, तो ववषयों से अपिे आप हट जाता है।
परंतु उि ववषयों के प्रनत लगाव िहीं छू टता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में ममलता है।
दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में ममलता है। सब कु छ िष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तर्ा
वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में क्जसकी निष्पवि होती है, वह भाव ही है। जब रस बि जाता है,
तो भाव िहीं रहता। के वल रस रहता है। उसकी भावता अपिा रूपांतर कर लेती है। रस अपूवथ की उत्पवि
है। िाट्य की प्रस्तुनत में सब कु छ पहले से ददया रहता है, ज्ञात रहता है, सुिा हुआ या देखा हुआ होता है। इसके
बावजूद कु छ िया अिुभव ममलता है। वह अिुभव दूसरे अिुभवों को पीछे छोड़ देता है। अके ले एक मशखर पर
पहुाँचा देता है। रस का यह अपूवथ रूप अप्रमेय और अनिवथचिीय है। [1]
ववमभन्ि सन्दभों में रस का अर्थ
एक प्रमसद्ध सूक्त है- रसौ वै स:। अर्ाथत्वह परमात्मा ही रस रूप आिन्द है। 'कु मारसम्भव' में पािी, तरल
और िव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मिुस्मृनत' मददरा के मलए रस शब्द का प्रयोग करती है।
मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेवषक दशथि' में चौबीस गुणों में एक गुण का
िाम रस है। रस छह मािे गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, नतक्त और कषाय। स्वाद, रूचच और इच्छा के
अर्थ में भी कामलदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम की अिुभूनत के मलए 'कु मारसम्भव' में रस शब्द का
प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश', आिन्द और प्रसन्िता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में ककसी
कववता की भावभूमम को रस कहते हैं। रसपूणथ वाक्य को काव्य कहते हैं।
भतृथहरर सार, तत्व और सवोिम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुवेद' में शरीर के संघटक
तत्वों के मलए रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अर्वा रसराज
कहा है। पारसमणण को रसरत्ि कहते हैं। मान्यता है कक पारसमणण के स्पशथ से लोहा सोिा बि जाता है।
रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उिररामचररत' में इसके मलए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भतृथहरर
काव्यममथज्ञ को रसमसद्ध कहते हैं। 'सादहत्यदपथण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण वववेचि के अर्थ में रस
परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। िाटक के अर्थ में रसप्रबन्ध शब्द प्रयुक्त हुआ है।
रस की उत्पत्ति
भरत िे प्रर्म आठ रसों में शृंगार, रौि, वीर तर्ा वीभत्स को प्रधाि मािकर क्रमश: हास्य, करुण, अद्भुत तर्ा भयािक रस की उत्पवि
मािी है। शृंगार की अिुकृ नत से हास्य, रौि तर्ा वीर कमथ के पररणामस्वरूप करुण तर्ा अद्भुत एवं वीभत्स दशथि से भयािक उत्पन्ि
होता है। अिुकृ नत का अर्थ, अमभिवगुप्त (11वीं शती) के शब्दों में आभास है, अत: ककसी भी रस का आभास हास्य का उत्पादक हो
सकता है। ववकृ त वेशालंकारादद भी हास्योत्पादक होते हैं। रौि का कायथ वविाश होता है, अत: उससे करुण की तर्ा वीरकमथ का कताथ प्राय:
अशक्य कायों को भी करते देखा जाता है, अत: उससे अद्भुत की उत्पवि स्वाभाववक लगती है। इसी प्रकार बीभत्सदशथि से भयािक की
उत्पवि भी संभव है। अके ले स्मशािादद का दशथि भयोत्पादक होता है। तर्ावप यह उत्पवि मसद्धांत आत्यंनतक िहीं कहा जा सकता,
क्योंकक परपक्ष का रौि या वीर रस स्वपक्ष के मलए भयािक की सृक्ष्ट भी कर सकता है और बीभत्सदशथि से शांत की उत्पवि भी संभव है।
रौि से भयािक, शृंगार से अद्भुत और वीर तर्ा भयािक से करुण की उत्पवि भी संभव है। वस्तुत: भरत का अमभमत स्पष्ट िहीं है।
उिके पश्चात्धिंजय (10वीं शती) िे चचि की ववकास, ववस्तार, ववक्षोभ तर्ा ववक्षेप िामक चार अवस्र्ाएाँ मािकर शृंगार तर्ा हास्य
को ववकास, वीर तर्ा अद्भुत को ववस्तार, बीभत्स तर्ा भयािक को ववक्षोभ और रौि तर्ा करुण को ववक्षेपावस्र्ा से संबंचधत मािा है।
ककं तु जो ववद्वाि्के वल िुनत, ववस्तार तर्ा ववकास िामक तीि ही अवस्र्ाएाँ मािते हैं उिका इस वगीकरण से समाधाि ि होगा। इसी
प्रकार यदद शृंगार में चचि की िववत क्स्र्नत, हास्य तर्ा अद्भुत में उसका ववस्तार, वीर तर्ा रौि में उसकी दीक्प्त तर्ा बीभत्स और
भयािक में उसका संकोच माि लें तो भी भरत का क्रम ठीक िहीं बैठता। एक क्स्र्नत के सार् दूसरी क्स्र्नत की उपक्स्र्नत भी असंभव
िहीं है। अद्भुत और वीर में ववस्तार के सार् दीक्प्त तर्ा करुण में िुनत और संकोच दोिों हैं। किर भी भरतकृ त संबंध स्र्ापि से इतिा
संके त अवश्य ममलता है कक कचर्त रसों में परस्पर उपकारकताथ ववद्यमाि है और वे एक दूसरे के ममत्र तर्ा सहचारी हैं।
रस की आस्वादनीयता
रस की आस्वादिीयता का ववचार करते हुए उसे ब्रह्मािंद सहोदर, स्वप्रकाशािंद, ववलक्षण आदद बताया जाता है और इस आधार पर सभी रसों को आिंदात्मक
मािा गया है। भट्टिायक (10वीं शती ई.) िे सत्वोिैक के कारण ममत्व-परत्व-हीि दशा, अमभिवगुप्त (11वीं शती ई.) िे निववथघ्ि प्रतीनत तर्ा आिंदवधथि (9
श. उिर) िे करुण में माधुयथ तर्ा आिथता की अवक्स्र्त बताते हुए शृंगार, ववप्रलंभ तर्ा करुण को उिरोिर प्रकषथमय बताकर सभी रसों की आिंदस्वरूपता की
ओर ही संके त ककया है। ककं तु अिुकू लवेदिीयता तर्ा प्रनतकू लवेदिीयता के आधार पर भावों का वववेचि करके रुिभट्ट (9 से 11वीं शती ई. बीच) रामचंि
गुणचंि (12वीं श.ई.), हररपाल, तर्ा धिंजय िे और दहंदी में आचायथ रामचंि शुक्ल िे रसों का सुखात्मक तर्ा दु:खात्मक अिुभूनतवाला मािा है। अमभिवगुप्त
िे इि सबसे पहले ही "अमभिवभारती" में "सुखदु:खस्वभावों रस:" मसद्धात को प्रस्तुत कर ददया र्ा। सुखात्मक रसों में शृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत तर्ा शांत
की और दु:खात्मक में करुण, रौि, बीभत्स तर्ा भयािक की गणिा की गई। "पािकरस" का उदाहरण देकर जैसे यह मसद्ध ककया गया कक गुड़ ममररच आदद
को ममचश्रत करके बिाए जािेवाले पािक रस में अलग-अलग वस्तुओं का खट्टा मीठापि ि मालूम होकर एक ववचचत्र प्रकार का आस्वाद ममलता है, उसी प्रकार
यह भी कहा गया कक उस वैचचत्र्य में भी आिुपानतक ढंग से कभी खट्टा, कभी नतक्त और इसी प्रकार अन्य प्रकार का स्वाद आ ही जाता है। मधुसूदि
सरस्वती का कर्ि है कक रज अर्वा तम की अपेक्षा सत्व को प्रधाि माि लेिे पर भी यह तो माििा ही चादहए कक अंशत: उिका भी आस्वाद बिा रहता है।
आचायथ शुक्ल का मत है कक हमें अिुभूनत तो वणणथत भाव की ही होती है और भाव सुखात्मक दु:खात्मक आदद प्रकार के हैं, अतएव रस भी दोिों प्रकार का होगा।
दूसरी ओर रसों को आिंदात्मक माििे के पक्षपाती सहृदयों को ही इसका प्रमण मािते हैं और तकथ का सहारा लेते हैं कक दु:खदायी वस्तु भी यदद अपिी वप्रय है
तो सुखदायी ही प्रतीत होती है। जैसे, रनतके मल के समय स्त्री का िखक्षतादद से यों तो शरीर पीड़ा ही अिुभव होती है, ककं तु उस समय वह उसे सुख ही मािती है।
भोज (11वीं शती ई.) तर्ा ववश्विार् (14वीं शती ई.) की इस धारणा के अनतररक्त स्वयं मधुसूदि सरस्वती रसों को लौककक भावों की अिुभूनत से मभन्ि और
ववलक्षण मािकर इिकी आिंदात्मकता का समर्थि करते है और अमभिवगुप्त वीतववघ्िप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कक उसी भाव का अिुभव
भी यदद बबिा ववचमलत हुए और ककसी बाहरी अर्वा अंतरोद्भूत अंतराय के बबिा ककया जाता है तो वह सह्य होिे के कारण आिंदात्मक ही कहलाता है। यदद
दु:खात्मक ही मािें तो किर शृंगार के ववप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही मािें तो किर शृंगार के ववप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही क्यों ि मािा जाए? इस प्रकार
के अिेक तकथ देकर रसों की आिंदरूपता मसद्ध की जाती है। अंग्रेजी में ट्रैजेडी से ममलिेवाले आिंद का भी अिेक प्रकार से समाधाि ककया गया है और मराठी
लेखकों िे भी रसों की आिंदरूपता के संबंध में पयाथप्त मभन्ि धारणाएाँ प्रस्तुत की हैं।
रसों का राजा कौन है?
प्राय: रसों के ववमभन्ि िामों की औपाचधक या औपचाररक सिा मािकर पारमाचर्थक रूप में रस को एक ही माििे की धारणा
प्रचमलत रही है। भारत िे "ि दह रसादृते कक्श्चदप्यर्थ : प्रवतथत" पंक्क्त में "रस" शब्द का एक वचि में प्रयोग ककया है और
अमभिवगुप्त िे उपररमलणखत धारणा व्यक्त की है। भोज िे शृंगार को ही एकमात्र रस मािकर उसकी सवथर्ैव मभन्ि व्याख्या
की है, ववश्विार् की अिुसार िारायण पंडडत चमत्कारकारी अद्भुत को ही एकमात्र रस मािते हैं, क्योंकक चमत्कार ही रसरूप
होता है। भवभूनत (8वीं शती ई.) िे करुण को ही एकमात्र रस मािकर उसी से सबकी उत्पवि बताई है और भरत के "स्वं स्वं
निममिमासाद्य शांताद्भाव: प्रवतथते, पुिनिथममिापाये च शांत एवोपलीयते" - (िाट्यशास्त्र 6/108) वक्तव्य के आधार पर शांत
को ही एकमात्र रस मािा जा सकता है। इसी प्रकार उत्साह तर्ा ववस्मय की सवथरससंचारी क्स्र्नत के आधार पर उन्हें भी अन्य
सब रसों के मूल में मािा जा सकता है। रस आस्वाद और आिंद के रूप में एक अखंड अिुभूनत मात्र हैं, यह एक पक्ष है और एक
ही रस से अन्य रसों का उद्भव हुआ है यह दूसरा पक्ष है।
रसाप्राधान्य के ववचार में रसराजता की समस्या उत्पन्ि की है। भरत समस्त शुचच, उज्वल, मेध्य और दलिीय को शृंगार
मािते हैं, "अक्निपुराण" (11वीं शती) शृंगार को ही एकमात्र रस बताकर अन्य सबको उसी के भेद मािता है, भोज शृंगार को ही
मूल और एकमात्र रस मािते हैं, परंतु उपलब्ध मलणखत प्रमाण के आधार पर "रसराज" शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलिीलमणण" में
भक्क्तरस के मलए ही ददखाई देता है। दहंदी में के शवदास(16वीं शती ई.) शृंगार को रसिायक और देव कवव (18वीं शती ई.) सब
रसों का मूल मािते हैं। "रसराज" संज्ञा का शृंगार के मलए प्रयोग मनतराम (18वीं शती ई.) द्वारा ही ककया गया ममलता है। दूसरी
ओरबिारसीदास (17वीं शती ई.) "समयसार" िाटक में "िवमों सांत रसनि को िायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की
स्वीकृ नत व्यापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसों को अंतभूथत करिे की क्षमता सभी संचाररयों तर्ा साक्त्वकों को अंत:सात्
करिे की शक्क्त सवथप्राणणसुलभत्व तर्ा शीघ्रग्राह्यता आदद पर निभथर है। ये सभी बातें क्जतिी अचधक और प्रबल शृंगार में पाई
जाती हैं, उतिी अन्य रसों में िहीं। अत: रसराज वही कहलाता है।
रस के प्रकार
रस 9 प्रकार के होते हैं -
क्रमांक रस का प्रकार स्र्ायी भाव
1. शृंगार रस रनत
2. हास्य रस हास
3. रस शोक
4. रौि रस क्रोध
5. वीर रस उत्साह
6. भयािक रस भय
7. वीभत्स रस घृणा, जुगुप्सा
8. अद्भुत रस आश्चयथ
9. शांत रस निवेद
करुण
शृंगार रस
ववचारको िे रौि तर्ा करुण को छोड़कर शेष रसों का भी वणथि ककया है। इिमें सबसे ववस्तृत वणथि शृंगार का ही ठहरता है। शृंगार मुख्यत: संयोग तर्ा ववप्रलंभ या
ववयोग के िाम से दो भागों में ववभाक्जत ककया जाता है, ककं तु धिंजय आदद कु छ ववद्वाि ्ववप्रलंभ के पूवाथिुराग भेद को संयोग-ववप्रलंभ-ववरदहत पूवाथवस्र्ा मािकर
अयोग की संज्ञा देते हैं तर्ा शेष ववप्रयोग तर्ा संभोग िाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अिेक पररक्स्र्नतयों के आधार पर उसे अगणेय मािकर उसे के वल
आश्रय भेद से िायकारब्ध, िानयकारब्ध अर्वा उभयारब्ध, प्रकाशि के ववचार से प्रच्छन्ि तर्ा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तर्ा प्रकाशिप्रकार के ववचार से संक्षक्षप्त,
संकीणथ, संपन्ितर तर्ा समृद्चधमाि िामक भेद ककए जाते हैं तर्ा ववप्रलंभ के पूवाथिुराग या अमभलाषहेतुक, माि या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, ववरह तर्ा करुण वप्रलंभ
िामक भेद ककए गए हैं। "काव्यप्रकाश" का ववरहहेतुक िया है और शापहेतुक भेद प्रवास के ही अंतगथत गृहीत हो सकता है, "सादहत्यदपथण" में करुण ववप्रलंभ की
कल्पिा की गई है। पूवाथिुराग कारण की दृक्ष्ट से गुणश्रवण, प्रत्यक्षदशथि, चचत्रदशथि, स्वप्ि तर्ा इंिजाल-दशथि-जन्य एवं राग क्स्र्रता और चमक के आधार पर
िीली, कु सुंभ तर्ा मंक्जष्ठा िामक भेदों में बााँटा जाता है। "अलंकारकौस्तुभ" में शीघ्र िष्ट होिेवाले तर्ा शोमभत ि होिेवाले राग को "हाररि" िाम से चौर्ा बताया है,
क्जसे उिका टीकाकार "श्यामाराग" भी कहता है। पूवाथिुराग का दश कामदशाएाँ - अमभलाष, चचंता, अिुस्मृनत, गुणकीतथि, उद्वेग, ववलाप, व्याचध, जड़ता तर्ा मरण
(या अप्रदश्र्य होिे के कारण उसके स्र्ाि पर मूच्र्छा) - मािी गई हैं, क्जिके स्र्ाि पर कहीं अपिे तर्ा कहीं दूसरे के मत के रूप में ववष्णुधमोिरपुराण, दशरूपक की
अवलोक टीका, सादहत्यदपथण, प्रतापरुिीय तर्ा सरस्वतीकं ठाभरण तर्ा काव्यदपथण में ककं चचत्पररवतथि के सार् चक्षुप्रीनत, मि:संग, स्मरण, नििाभंग, तिुता,
व्यावृवि, लज्जािाश, उन्माद, मूच्र्छा तर्ा मरण का उल्लेख ककया गया है। शारदातिय (13वीं शती) िे इच्छा तर्ा उत्कं ठा को जोड़कर तर्ा ववद्यािार् (14वीं शती
पूवाथधथ) िे स्मरण के स्र्ाि पर संकल्प लाकर और प्रलाप तर्ा संज्वर को बढाकर इिकी संख्या 12 मािी है। यह युक्क्तयुक्त िहीं है और इिका अंतभाथव हो सकता
है। माि-ववप्रलंभ प्रणय तर्ा ईष्र्या के ववचार से दो प्रकार का तर्ा माि की क्स्र्रता तर्ा अपराध की गंभीरता के ववचार से लघु, मध्यम तर्ा गुरु िाम से तीि प्रकार
का, प्रवासववप्रलंभ कायथज, शापज, साँभ्रमज िाम से तीि प्रकार का और कायथज के यस्यत्प्रवास या भववष्यत्गच्छत्प्रवास या वतथमाि तर्ा गतप्रवास या भववष्यत्
गच्छत्प्रवास या वतथमाि तर्ा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के तािूप्य तर्ा वैरूप्य, तर्ा संभ्रमज के उत्पात, वात, ददव्य, मािुष तर्ा परचक्रादद भेद के कारण कई
प्रकार का होता है। ववरह गुरुजिादद की समीपता के कारण पास रहकर भी िानयका तर्ा िायक के संयोग के होिे का तर्ा करुण ववप्रलंभ मृत्यु के अिंतर भी
पुिजीवि द्वारा ममलि की आशा बिी रहिेवाले ववयोग को कहते हैं। शृंगार रस के अंतगथत िानयकालंकार, ऋतु तर्ा प्रकृ नत का भी वणथि ककया जाता है। एक
उदाहरण है-
राम को रूप निहारनत जािकी कं गि के िग की परछाही ।
याते सबे सुख भूमल गइ कर तेकक रही पल तारनत िाही ।।
हास्य रस
हास्यरस के ववभावभेद से आत्मस्र् तर्ा परस्र् एवं हास्य के ववकासववचार से क्स्मत, हमसत, ववहमसत, उपहमसत,
अपहमसत तर्ा अनतहमसत भेद करके उिके भी उिम, मध्यम तर्ा अधम प्रकृ नत भेद से तीि भेद करते हुए उिके
अंतगथत पूवोक्त क्रमश: दो-दो भेदों को रखा गया है। दहंदी में के शवदास तर्ा एकाध अन्य लेखक िे के वल मंदहास,
कलहास, अनतहास तर्ा पररहास िामक चार ही भेद ककए हैं। अंग्रेजी के आधार पर हास्य के अन्य अिेक िाम भी
प्रचमलत हो गए हैं। वीर रस के के वल युद्धवीर, धमथवीर, दयावीर तर्ा दािवीर भेद स्वीकार ककए जाते हैं। उत्साह को
आधार मािकर पंडडतराज (17वीं शती मध्य) आदद िे अन्य अिेक भेद भी ककए हैं। अद्भुत रस के भरत ददव्य तर्ा
आिंदज और वैष्णव आचायथ दृष्ट, श्रुत, संकीनतथत तर्ा अिुममत िामक भेद करते हैं। बीभत्स भरत तर्ा धिंजय के
अिुसार शुद्ध, क्षोभि तर्ा उद्वेगी िाम से तीि प्रकार का होता है और भयािक कारणभेद से व्याजजन्य या
भ्रमजनित, अपराधजन्य या काल्पनिक तर्ा ववत्रामसतक या वास्तववक िाम से तीि प्रकार का और स्वनिष्ठ परनिष्ठ
भेद से दो प्रकार का मािा जाता है। शांत का कोई भेद िहीं है। के वल रुिभट्ट िे अवश्य वैरानय, दोषनिग्रह, संतोष तर्ा
तत्वसाक्षात्कार िाम से इसके चार भेद ददए हैं जो साधि मात्र के िाम है और इिकी संख्या बढाई भी जा सकती है।
करुणा रस
करुणा का भाव सोक िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। इसका
उत्पादि अपिो और ररशतेदारों से जुदाई, धि की हािी, प्राण की हािी,
कारावास, उडाि, बदककसमती, आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होनत है।
अश्रुपात, पररवेदिा, मुखषोशिा, वैवरन्य, स्वरभेद, निश्वास, और स्मृनतलोप, से
इसका प्रनतनिचधत्व होता है। निवेद, नलानि, उत्सुकता, आवेग, मोह, श्रमा,
ववषाद, दैन्य, व्याचध, जडता, उिमाद, अपस्मर त्रासा, आल्स्य, मरण आदद
अन्य इसके श्रणभंगुर भाविाएं है। स्तम्भ, मसहरि, वैवरन्य, अश्रु और स्वरभेद
इसके साक्त्वक भाव है। करुण रस वप्रय जि कक हत्या की दृक्ष्ट, या अवप्रय
शब्दो के सुििे से भी इसकी उठता होनत है। इसका प्रनतनिचधत्व जोर जोर से
रोिे, ववलाप, िू ट िू ट के रोिे और आदद द्वारा होता है।
रौद्र रस
रौि क्रोध िामक स्र्ायी भाव से आकार मलया है | और यह आमतौर पर
राक्षसों दािवो और बुरे आदममयो मे उत्भव होता है |और य्ह निधाथरकों
द्वारा उत्पन्ि जैसे क्रोधकसथि, अचधकशेप, अवमि, अन्र्तवचिा आदद रौि
तीि तरि क है - बोल से रौि िेपध्य से रौि और अग से रौि
वीर रस
वीर का भाव उत्साह िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। वीर का भाव बेहतर स्वभाव के लोग
और उजाथवि उत्साह से ववषेशता प्राप्त करती है। इसका उत्पादि असम्मोह, अध्यवसय, िाय, पराक्रम,
श्क्ती, प्रताप और प्रभाव आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होनत है। स्र्ैयथ, धैयथ, शौयथ, त्याग और
वैसराद्य से इसका प्रनतनिचधत्व होता है। धृती, मनत, गवथ, आवेग, ऊग्रता, अक्रोश, स्मृत और ववबोध
आदद अन्य इसके श्रणभंगुर भाविाएं है। येह तीि प्रकार के होते है:
•दािवीर- जो कोई मभ दाि देके या उपहार देके वीर बिा हो, वोह् दािवीर कहलाता है। उदा:कणथ।
•दयावीर- जो कोई मभ हर क्षेत्र के लोगो कक ओर सहािुभूनत कक भाविा प्रकट करता हो, वोह दयावीर
कहलाता है। उदा:युद्चधक्ष्टर।
•युद्यवीर-जो कोई मभ साहसी, बहादुर हो और मृत्यु के भय से ि दरता हो, युद्यवीर कहलाता है।
उदा:अजुथि।
भयानक रस
भयािक का भाव भय िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। इसका उत्पादि, क्रू र
जािवर के भयािक आवाजो से, प्रेतवाचधत घरों के दृषय से या अपिों कक मृत्यु कक खबर
सुििे आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होता है। हार्, पैर, आखों के कं पि द्वारा इसका
प्रनतनिचधत्व ककया जा सकता है। जडता, स्ंक, मोह, दैन्य, आवेग, कपलता, त्रासा, अप्समाथ
और मरण इसकी श्रणभंगुर भाविाएं है। इसके साक्त्वक भाव इस प्रकार है:
•स्तम्भ
•स्वेद
•रोमान्च
•स्वरभेद
•वेपर्ु
•वैवन्यथ
•प्रलय
येह तीि प्रकार के होते है: व्यज, अपराध और ववत्रमसतक, अर्ाथत भय जो छल, आतंक, या
गलत कायथ करिे से पैदा होता है।
बीबत्स रस
बीबत्स का भाव जुगुपसा िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है।
इसका उत्पादि, अवप्रय, दूवषत, प्रनतकू ल, आदद अन्य निधाथरक तत्वों
द्वारा होता है। सवथङसम्हर, मुखववकु िि, उल्लेखि, निमशवि, उद्वेजि,
आदद द्वारा इसका प्रनतनिचधत्व ककया जा सकता है। आवेग, मोह, व्याचध
इसकी श्रणभंगुर भाविाएं है। यह तीि प्रकार के होते है:
•शुद्ध
•उद्वेचग
•क्षोभिा
अद्भुत रस
अद्भुत का भाव ववस्मय िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। इसका
उत्पादि ददव्यजिदरशि, ईक्प्सतावाक्प्त, उपविगमण्, देवाल, यगमण,
सभादशथण, ववमणदशथण, आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होता है।
ियणववस्तार, अनिमेसप्रेक्षण, हषथ, साधुवाद, दािप्रबन्ध, हाहाकार और
बाहुवन्दिा आदद द्वारा इसका प्रनतनिचधत्व ककया जा सकता है। आवेग,
अक्स्र्रता, हषथ, उन्माद, धृनत, जडता इसकी श्रणभंगुर भाविाएं है। स्तम्भ,
स्वेद, रोमान्च, अश्रु और प्रलय इस्के साक्त्वक भाव है।
यह भाव दो तरह के होते है:
•ददव्य
•आिन्दज
शान्त रस
शांत रस का उल्लेख यहााँ कु छ दृक्ष्टयों से और आवश्यक है। इसके स्र्ायीभाव के संबंध में ऐकमत्य िहीं है।
कोई शम को और कोई निवेद को स्र्ायी मािता है। रुिट (9 ई.) िे "सम्यक् ज्ञाि" को, आिंदवधथि िे
"तृष्णाक्षयसुख" को, तर्ा अन्यों िे "सवथचचिवृविप्रशम", निववथशेषचचिवृवि, "घृनत" या "उत्साह" को
स्र्ायीभाव मािा। अमभिवगुप्त िे "तत्वज्ञाि" को स्र्ायी मािा है। शांत रस का िाट्य में प्रयोग करिे के
संबंध में भी वैमत्य है। ववरोधी पक्ष इसे ववकक्रयाहीि तर्ा प्रदशथि में कदठि मािकर ववरोध करता है तो
समर्थक दल का कर्ि है कक चेष्टाओं का उपराम प्रदमशथत करिा शांत रस का उद्देश्य िहीं है, वह तो
पयंतभूमम है। अतएव पात्र की स्वभावगत शांनत एवं लौककक दु:ख सुख के प्रनत ववराग के प्रदशथि से ही काम
चल सकता है। िट भी इि बातों को और इिकी प्राक्प्त के मलए ककए गए प्रयत्िों को ददखा सकता है और इस
दशा में संचाररयों के ग्रहण करिे में भी बाधा िहीं होगी। सवेंदिय उपराम ि होिे पर संचारी आदद हो ही
सकते हैं। इसी प्रकार यदद शांत शम अवस्र्ावाला है तो रौि, भयािक तर्ा वीभत्स आदद कु छ रस भी ऐसे हैं
क्जिके स्र्ायीभाव प्रबुद्ध अवस्र्ा में प्रबलता ददखाकर शीघ्र ही शांत होिे लगते हैं। अतएव जैसे उिका
प्रदशथि प्रभावपूणथ रूप में ककया जाता है, वैसे ही इसका भी हो सकता है। जैसे मरण जैसी दशाओं का प्रदशथि
अन्य स्र्ािों पर निवषद्ध है वैसे ही उपराम की पराकाष्ठा के प्रदशथि से यहााँ भी बचा जा सकता है।
रसों का अन्तभाथव आदद
स्र्ायीभावों के ककसी ववशेष लक्षण अर्वा रसों के ककसी भाव की समािता के आधार पर प्राय: रसों का एक दूसरे में
अंतभाथव करिे, ककसी स्र्ायीभाव का नतरस्कार करके िवीि स्र्ायी माििे की प्रवृवि भी यदा-कदा ददखाई पड़ी है। यर्ा,
शांत रस और दयावीर तर्ा वीभत्स में से दयावीर का शांत में अंतभाथव तर्ा बीभत्स स्र्ायी जुगुप्सा को शांत का स्र्ायी
मािा गया है। "िागािंद" िाटक को कोई शांत का और कोई दयावीर रस का िाटक मािता है। ककं तु यदद शांत के
तत्वज्ञािमूलक ववराम और दयावीर के करुणाजनित उत्साह पर ध्याि ददया जाए तो दोिों में मभन्िता ददखाई देगी। इसी
प्रकार जुगुप्सा में जो ववकषथण है वह शांत में िहीं रहता। शांत राग-द्वेष दोिों से परे समावस्र्ा और तत्वज्ञािसंमममलत रस
है क्जसमें जुगुप्सा संचारी मात्र बि सकती है। ठीक ऐसे जैसे करुण में भी सहािुभूनत का संचार रहता है और दयावीर में भी,
ककं तु करुण में शोक की क्स्र्नत है और दयावीर में सहािुभूनतप्रेररत आत्मशक्क्तसंभूत आिंदरूप उत्साह की। अर्वा, जैसे
रौि और युद्धवीर दोिों का आलंबि शत्रु है, अत: दोिों में क्रोध की मात्रा रहती है, परंतु रौि में रहिेवाली प्रमोदप्रनतकू ल
तीक्ष्णता और अवववेक और युद्धवीर में उत्सह की उत्िु ल्लता और वववेक रहता है। क्रोध में शत्रुवविाश में प्रनतशोध की
भाविा रहती है और वीर में धैयथ और उदारता। अतएव इिका परस्पर अंतभाथव संभव िहीं। इसी प्रकार "अंमषथ" को वीर का
स्र्ायी माििा भी उचचत िहीं, क्योंकक अमषथ निंदा, अपमाि या आक्षेपादद के कारण चचि के अमभनिवेश या
स्वामभमािावबोध के रूप में प्रकट होता है, ककं तु वीररस के दयावीर, दािवीर, तर्ा धमथवीर िामक भेदों में इस प्रकार की
भाविा िहीं रहती।
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रस

  • 2. रस का अर्थ रस का अर्थ होता है निचोड़। काव्य में जो आिन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आिे वाला आिन्द अर्ाथत्रस लौककक ि होकर अलौककक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृ त में कहा गया है कक "रसात्मकम्वाक्यम्काव्यम्" अर्ाथत्रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्क्त है, क्जसके कारण इक्न्ियााँ अपिा कायथ करती हैं, मि कल्पिा करता है, स्वप्ि की स्मृनत रहती है। रस आिंद रूप है और यही आिंद ववशाल का, ववराट का अिुभव भी है। यही आिंद अन्य सभी अिुभवों का अनतक्रमण भी है। आदमी इक्न्ियों पर संयम करता है, तो ववषयों से अपिे आप हट जाता है। परंतु उि ववषयों के प्रनत लगाव िहीं छू टता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में ममलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में ममलता है। सब कु छ िष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तर्ा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में क्जसकी निष्पवि होती है, वह भाव ही है। जब रस बि जाता है, तो भाव िहीं रहता। के वल रस रहता है। उसकी भावता अपिा रूपांतर कर लेती है। रस अपूवथ की उत्पवि है। िाट्य की प्रस्तुनत में सब कु छ पहले से ददया रहता है, ज्ञात रहता है, सुिा हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कु छ िया अिुभव ममलता है। वह अिुभव दूसरे अिुभवों को पीछे छोड़ देता है। अके ले एक मशखर पर पहुाँचा देता है। रस का यह अपूवथ रूप अप्रमेय और अनिवथचिीय है। [1]
  • 3. ववमभन्ि सन्दभों में रस का अर्थ एक प्रमसद्ध सूक्त है- रसौ वै स:। अर्ाथत्वह परमात्मा ही रस रूप आिन्द है। 'कु मारसम्भव' में पािी, तरल और िव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मिुस्मृनत' मददरा के मलए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेवषक दशथि' में चौबीस गुणों में एक गुण का िाम रस है। रस छह मािे गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, नतक्त और कषाय। स्वाद, रूचच और इच्छा के अर्थ में भी कामलदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम की अिुभूनत के मलए 'कु मारसम्भव' में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश', आिन्द और प्रसन्िता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में ककसी कववता की भावभूमम को रस कहते हैं। रसपूणथ वाक्य को काव्य कहते हैं। भतृथहरर सार, तत्व और सवोिम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुवेद' में शरीर के संघटक तत्वों के मलए रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अर्वा रसराज कहा है। पारसमणण को रसरत्ि कहते हैं। मान्यता है कक पारसमणण के स्पशथ से लोहा सोिा बि जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उिररामचररत' में इसके मलए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भतृथहरर काव्यममथज्ञ को रसमसद्ध कहते हैं। 'सादहत्यदपथण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण वववेचि के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। िाटक के अर्थ में रसप्रबन्ध शब्द प्रयुक्त हुआ है।
  • 4. रस की उत्पत्ति भरत िे प्रर्म आठ रसों में शृंगार, रौि, वीर तर्ा वीभत्स को प्रधाि मािकर क्रमश: हास्य, करुण, अद्भुत तर्ा भयािक रस की उत्पवि मािी है। शृंगार की अिुकृ नत से हास्य, रौि तर्ा वीर कमथ के पररणामस्वरूप करुण तर्ा अद्भुत एवं वीभत्स दशथि से भयािक उत्पन्ि होता है। अिुकृ नत का अर्थ, अमभिवगुप्त (11वीं शती) के शब्दों में आभास है, अत: ककसी भी रस का आभास हास्य का उत्पादक हो सकता है। ववकृ त वेशालंकारादद भी हास्योत्पादक होते हैं। रौि का कायथ वविाश होता है, अत: उससे करुण की तर्ा वीरकमथ का कताथ प्राय: अशक्य कायों को भी करते देखा जाता है, अत: उससे अद्भुत की उत्पवि स्वाभाववक लगती है। इसी प्रकार बीभत्सदशथि से भयािक की उत्पवि भी संभव है। अके ले स्मशािादद का दशथि भयोत्पादक होता है। तर्ावप यह उत्पवि मसद्धांत आत्यंनतक िहीं कहा जा सकता, क्योंकक परपक्ष का रौि या वीर रस स्वपक्ष के मलए भयािक की सृक्ष्ट भी कर सकता है और बीभत्सदशथि से शांत की उत्पवि भी संभव है। रौि से भयािक, शृंगार से अद्भुत और वीर तर्ा भयािक से करुण की उत्पवि भी संभव है। वस्तुत: भरत का अमभमत स्पष्ट िहीं है। उिके पश्चात्धिंजय (10वीं शती) िे चचि की ववकास, ववस्तार, ववक्षोभ तर्ा ववक्षेप िामक चार अवस्र्ाएाँ मािकर शृंगार तर्ा हास्य को ववकास, वीर तर्ा अद्भुत को ववस्तार, बीभत्स तर्ा भयािक को ववक्षोभ और रौि तर्ा करुण को ववक्षेपावस्र्ा से संबंचधत मािा है। ककं तु जो ववद्वाि्के वल िुनत, ववस्तार तर्ा ववकास िामक तीि ही अवस्र्ाएाँ मािते हैं उिका इस वगीकरण से समाधाि ि होगा। इसी प्रकार यदद शृंगार में चचि की िववत क्स्र्नत, हास्य तर्ा अद्भुत में उसका ववस्तार, वीर तर्ा रौि में उसकी दीक्प्त तर्ा बीभत्स और भयािक में उसका संकोच माि लें तो भी भरत का क्रम ठीक िहीं बैठता। एक क्स्र्नत के सार् दूसरी क्स्र्नत की उपक्स्र्नत भी असंभव िहीं है। अद्भुत और वीर में ववस्तार के सार् दीक्प्त तर्ा करुण में िुनत और संकोच दोिों हैं। किर भी भरतकृ त संबंध स्र्ापि से इतिा संके त अवश्य ममलता है कक कचर्त रसों में परस्पर उपकारकताथ ववद्यमाि है और वे एक दूसरे के ममत्र तर्ा सहचारी हैं।
  • 5. रस की आस्वादनीयता रस की आस्वादिीयता का ववचार करते हुए उसे ब्रह्मािंद सहोदर, स्वप्रकाशािंद, ववलक्षण आदद बताया जाता है और इस आधार पर सभी रसों को आिंदात्मक मािा गया है। भट्टिायक (10वीं शती ई.) िे सत्वोिैक के कारण ममत्व-परत्व-हीि दशा, अमभिवगुप्त (11वीं शती ई.) िे निववथघ्ि प्रतीनत तर्ा आिंदवधथि (9 श. उिर) िे करुण में माधुयथ तर्ा आिथता की अवक्स्र्त बताते हुए शृंगार, ववप्रलंभ तर्ा करुण को उिरोिर प्रकषथमय बताकर सभी रसों की आिंदस्वरूपता की ओर ही संके त ककया है। ककं तु अिुकू लवेदिीयता तर्ा प्रनतकू लवेदिीयता के आधार पर भावों का वववेचि करके रुिभट्ट (9 से 11वीं शती ई. बीच) रामचंि गुणचंि (12वीं श.ई.), हररपाल, तर्ा धिंजय िे और दहंदी में आचायथ रामचंि शुक्ल िे रसों का सुखात्मक तर्ा दु:खात्मक अिुभूनतवाला मािा है। अमभिवगुप्त िे इि सबसे पहले ही "अमभिवभारती" में "सुखदु:खस्वभावों रस:" मसद्धात को प्रस्तुत कर ददया र्ा। सुखात्मक रसों में शृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत तर्ा शांत की और दु:खात्मक में करुण, रौि, बीभत्स तर्ा भयािक की गणिा की गई। "पािकरस" का उदाहरण देकर जैसे यह मसद्ध ककया गया कक गुड़ ममररच आदद को ममचश्रत करके बिाए जािेवाले पािक रस में अलग-अलग वस्तुओं का खट्टा मीठापि ि मालूम होकर एक ववचचत्र प्रकार का आस्वाद ममलता है, उसी प्रकार यह भी कहा गया कक उस वैचचत्र्य में भी आिुपानतक ढंग से कभी खट्टा, कभी नतक्त और इसी प्रकार अन्य प्रकार का स्वाद आ ही जाता है। मधुसूदि सरस्वती का कर्ि है कक रज अर्वा तम की अपेक्षा सत्व को प्रधाि माि लेिे पर भी यह तो माििा ही चादहए कक अंशत: उिका भी आस्वाद बिा रहता है। आचायथ शुक्ल का मत है कक हमें अिुभूनत तो वणणथत भाव की ही होती है और भाव सुखात्मक दु:खात्मक आदद प्रकार के हैं, अतएव रस भी दोिों प्रकार का होगा। दूसरी ओर रसों को आिंदात्मक माििे के पक्षपाती सहृदयों को ही इसका प्रमण मािते हैं और तकथ का सहारा लेते हैं कक दु:खदायी वस्तु भी यदद अपिी वप्रय है तो सुखदायी ही प्रतीत होती है। जैसे, रनतके मल के समय स्त्री का िखक्षतादद से यों तो शरीर पीड़ा ही अिुभव होती है, ककं तु उस समय वह उसे सुख ही मािती है। भोज (11वीं शती ई.) तर्ा ववश्विार् (14वीं शती ई.) की इस धारणा के अनतररक्त स्वयं मधुसूदि सरस्वती रसों को लौककक भावों की अिुभूनत से मभन्ि और ववलक्षण मािकर इिकी आिंदात्मकता का समर्थि करते है और अमभिवगुप्त वीतववघ्िप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कक उसी भाव का अिुभव भी यदद बबिा ववचमलत हुए और ककसी बाहरी अर्वा अंतरोद्भूत अंतराय के बबिा ककया जाता है तो वह सह्य होिे के कारण आिंदात्मक ही कहलाता है। यदद दु:खात्मक ही मािें तो किर शृंगार के ववप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही मािें तो किर शृंगार के ववप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही क्यों ि मािा जाए? इस प्रकार के अिेक तकथ देकर रसों की आिंदरूपता मसद्ध की जाती है। अंग्रेजी में ट्रैजेडी से ममलिेवाले आिंद का भी अिेक प्रकार से समाधाि ककया गया है और मराठी लेखकों िे भी रसों की आिंदरूपता के संबंध में पयाथप्त मभन्ि धारणाएाँ प्रस्तुत की हैं।
  • 6. रसों का राजा कौन है? प्राय: रसों के ववमभन्ि िामों की औपाचधक या औपचाररक सिा मािकर पारमाचर्थक रूप में रस को एक ही माििे की धारणा प्रचमलत रही है। भारत िे "ि दह रसादृते कक्श्चदप्यर्थ : प्रवतथत" पंक्क्त में "रस" शब्द का एक वचि में प्रयोग ककया है और अमभिवगुप्त िे उपररमलणखत धारणा व्यक्त की है। भोज िे शृंगार को ही एकमात्र रस मािकर उसकी सवथर्ैव मभन्ि व्याख्या की है, ववश्विार् की अिुसार िारायण पंडडत चमत्कारकारी अद्भुत को ही एकमात्र रस मािते हैं, क्योंकक चमत्कार ही रसरूप होता है। भवभूनत (8वीं शती ई.) िे करुण को ही एकमात्र रस मािकर उसी से सबकी उत्पवि बताई है और भरत के "स्वं स्वं निममिमासाद्य शांताद्भाव: प्रवतथते, पुिनिथममिापाये च शांत एवोपलीयते" - (िाट्यशास्त्र 6/108) वक्तव्य के आधार पर शांत को ही एकमात्र रस मािा जा सकता है। इसी प्रकार उत्साह तर्ा ववस्मय की सवथरससंचारी क्स्र्नत के आधार पर उन्हें भी अन्य सब रसों के मूल में मािा जा सकता है। रस आस्वाद और आिंद के रूप में एक अखंड अिुभूनत मात्र हैं, यह एक पक्ष है और एक ही रस से अन्य रसों का उद्भव हुआ है यह दूसरा पक्ष है। रसाप्राधान्य के ववचार में रसराजता की समस्या उत्पन्ि की है। भरत समस्त शुचच, उज्वल, मेध्य और दलिीय को शृंगार मािते हैं, "अक्निपुराण" (11वीं शती) शृंगार को ही एकमात्र रस बताकर अन्य सबको उसी के भेद मािता है, भोज शृंगार को ही मूल और एकमात्र रस मािते हैं, परंतु उपलब्ध मलणखत प्रमाण के आधार पर "रसराज" शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलिीलमणण" में भक्क्तरस के मलए ही ददखाई देता है। दहंदी में के शवदास(16वीं शती ई.) शृंगार को रसिायक और देव कवव (18वीं शती ई.) सब रसों का मूल मािते हैं। "रसराज" संज्ञा का शृंगार के मलए प्रयोग मनतराम (18वीं शती ई.) द्वारा ही ककया गया ममलता है। दूसरी ओरबिारसीदास (17वीं शती ई.) "समयसार" िाटक में "िवमों सांत रसनि को िायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की स्वीकृ नत व्यापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसों को अंतभूथत करिे की क्षमता सभी संचाररयों तर्ा साक्त्वकों को अंत:सात् करिे की शक्क्त सवथप्राणणसुलभत्व तर्ा शीघ्रग्राह्यता आदद पर निभथर है। ये सभी बातें क्जतिी अचधक और प्रबल शृंगार में पाई जाती हैं, उतिी अन्य रसों में िहीं। अत: रसराज वही कहलाता है।
  • 7. रस के प्रकार रस 9 प्रकार के होते हैं - क्रमांक रस का प्रकार स्र्ायी भाव 1. शृंगार रस रनत 2. हास्य रस हास 3. रस शोक 4. रौि रस क्रोध 5. वीर रस उत्साह 6. भयािक रस भय 7. वीभत्स रस घृणा, जुगुप्सा 8. अद्भुत रस आश्चयथ 9. शांत रस निवेद करुण
  • 8. शृंगार रस ववचारको िे रौि तर्ा करुण को छोड़कर शेष रसों का भी वणथि ककया है। इिमें सबसे ववस्तृत वणथि शृंगार का ही ठहरता है। शृंगार मुख्यत: संयोग तर्ा ववप्रलंभ या ववयोग के िाम से दो भागों में ववभाक्जत ककया जाता है, ककं तु धिंजय आदद कु छ ववद्वाि ्ववप्रलंभ के पूवाथिुराग भेद को संयोग-ववप्रलंभ-ववरदहत पूवाथवस्र्ा मािकर अयोग की संज्ञा देते हैं तर्ा शेष ववप्रयोग तर्ा संभोग िाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अिेक पररक्स्र्नतयों के आधार पर उसे अगणेय मािकर उसे के वल आश्रय भेद से िायकारब्ध, िानयकारब्ध अर्वा उभयारब्ध, प्रकाशि के ववचार से प्रच्छन्ि तर्ा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तर्ा प्रकाशिप्रकार के ववचार से संक्षक्षप्त, संकीणथ, संपन्ितर तर्ा समृद्चधमाि िामक भेद ककए जाते हैं तर्ा ववप्रलंभ के पूवाथिुराग या अमभलाषहेतुक, माि या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, ववरह तर्ा करुण वप्रलंभ िामक भेद ककए गए हैं। "काव्यप्रकाश" का ववरहहेतुक िया है और शापहेतुक भेद प्रवास के ही अंतगथत गृहीत हो सकता है, "सादहत्यदपथण" में करुण ववप्रलंभ की कल्पिा की गई है। पूवाथिुराग कारण की दृक्ष्ट से गुणश्रवण, प्रत्यक्षदशथि, चचत्रदशथि, स्वप्ि तर्ा इंिजाल-दशथि-जन्य एवं राग क्स्र्रता और चमक के आधार पर िीली, कु सुंभ तर्ा मंक्जष्ठा िामक भेदों में बााँटा जाता है। "अलंकारकौस्तुभ" में शीघ्र िष्ट होिेवाले तर्ा शोमभत ि होिेवाले राग को "हाररि" िाम से चौर्ा बताया है, क्जसे उिका टीकाकार "श्यामाराग" भी कहता है। पूवाथिुराग का दश कामदशाएाँ - अमभलाष, चचंता, अिुस्मृनत, गुणकीतथि, उद्वेग, ववलाप, व्याचध, जड़ता तर्ा मरण (या अप्रदश्र्य होिे के कारण उसके स्र्ाि पर मूच्र्छा) - मािी गई हैं, क्जिके स्र्ाि पर कहीं अपिे तर्ा कहीं दूसरे के मत के रूप में ववष्णुधमोिरपुराण, दशरूपक की अवलोक टीका, सादहत्यदपथण, प्रतापरुिीय तर्ा सरस्वतीकं ठाभरण तर्ा काव्यदपथण में ककं चचत्पररवतथि के सार् चक्षुप्रीनत, मि:संग, स्मरण, नििाभंग, तिुता, व्यावृवि, लज्जािाश, उन्माद, मूच्र्छा तर्ा मरण का उल्लेख ककया गया है। शारदातिय (13वीं शती) िे इच्छा तर्ा उत्कं ठा को जोड़कर तर्ा ववद्यािार् (14वीं शती पूवाथधथ) िे स्मरण के स्र्ाि पर संकल्प लाकर और प्रलाप तर्ा संज्वर को बढाकर इिकी संख्या 12 मािी है। यह युक्क्तयुक्त िहीं है और इिका अंतभाथव हो सकता है। माि-ववप्रलंभ प्रणय तर्ा ईष्र्या के ववचार से दो प्रकार का तर्ा माि की क्स्र्रता तर्ा अपराध की गंभीरता के ववचार से लघु, मध्यम तर्ा गुरु िाम से तीि प्रकार का, प्रवासववप्रलंभ कायथज, शापज, साँभ्रमज िाम से तीि प्रकार का और कायथज के यस्यत्प्रवास या भववष्यत्गच्छत्प्रवास या वतथमाि तर्ा गतप्रवास या भववष्यत् गच्छत्प्रवास या वतथमाि तर्ा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के तािूप्य तर्ा वैरूप्य, तर्ा संभ्रमज के उत्पात, वात, ददव्य, मािुष तर्ा परचक्रादद भेद के कारण कई प्रकार का होता है। ववरह गुरुजिादद की समीपता के कारण पास रहकर भी िानयका तर्ा िायक के संयोग के होिे का तर्ा करुण ववप्रलंभ मृत्यु के अिंतर भी पुिजीवि द्वारा ममलि की आशा बिी रहिेवाले ववयोग को कहते हैं। शृंगार रस के अंतगथत िानयकालंकार, ऋतु तर्ा प्रकृ नत का भी वणथि ककया जाता है। एक उदाहरण है- राम को रूप निहारनत जािकी कं गि के िग की परछाही । याते सबे सुख भूमल गइ कर तेकक रही पल तारनत िाही ।।
  • 9. हास्य रस हास्यरस के ववभावभेद से आत्मस्र् तर्ा परस्र् एवं हास्य के ववकासववचार से क्स्मत, हमसत, ववहमसत, उपहमसत, अपहमसत तर्ा अनतहमसत भेद करके उिके भी उिम, मध्यम तर्ा अधम प्रकृ नत भेद से तीि भेद करते हुए उिके अंतगथत पूवोक्त क्रमश: दो-दो भेदों को रखा गया है। दहंदी में के शवदास तर्ा एकाध अन्य लेखक िे के वल मंदहास, कलहास, अनतहास तर्ा पररहास िामक चार ही भेद ककए हैं। अंग्रेजी के आधार पर हास्य के अन्य अिेक िाम भी प्रचमलत हो गए हैं। वीर रस के के वल युद्धवीर, धमथवीर, दयावीर तर्ा दािवीर भेद स्वीकार ककए जाते हैं। उत्साह को आधार मािकर पंडडतराज (17वीं शती मध्य) आदद िे अन्य अिेक भेद भी ककए हैं। अद्भुत रस के भरत ददव्य तर्ा आिंदज और वैष्णव आचायथ दृष्ट, श्रुत, संकीनतथत तर्ा अिुममत िामक भेद करते हैं। बीभत्स भरत तर्ा धिंजय के अिुसार शुद्ध, क्षोभि तर्ा उद्वेगी िाम से तीि प्रकार का होता है और भयािक कारणभेद से व्याजजन्य या भ्रमजनित, अपराधजन्य या काल्पनिक तर्ा ववत्रामसतक या वास्तववक िाम से तीि प्रकार का और स्वनिष्ठ परनिष्ठ भेद से दो प्रकार का मािा जाता है। शांत का कोई भेद िहीं है। के वल रुिभट्ट िे अवश्य वैरानय, दोषनिग्रह, संतोष तर्ा तत्वसाक्षात्कार िाम से इसके चार भेद ददए हैं जो साधि मात्र के िाम है और इिकी संख्या बढाई भी जा सकती है।
  • 10. करुणा रस करुणा का भाव सोक िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। इसका उत्पादि अपिो और ररशतेदारों से जुदाई, धि की हािी, प्राण की हािी, कारावास, उडाि, बदककसमती, आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होनत है। अश्रुपात, पररवेदिा, मुखषोशिा, वैवरन्य, स्वरभेद, निश्वास, और स्मृनतलोप, से इसका प्रनतनिचधत्व होता है। निवेद, नलानि, उत्सुकता, आवेग, मोह, श्रमा, ववषाद, दैन्य, व्याचध, जडता, उिमाद, अपस्मर त्रासा, आल्स्य, मरण आदद अन्य इसके श्रणभंगुर भाविाएं है। स्तम्भ, मसहरि, वैवरन्य, अश्रु और स्वरभेद इसके साक्त्वक भाव है। करुण रस वप्रय जि कक हत्या की दृक्ष्ट, या अवप्रय शब्दो के सुििे से भी इसकी उठता होनत है। इसका प्रनतनिचधत्व जोर जोर से रोिे, ववलाप, िू ट िू ट के रोिे और आदद द्वारा होता है।
  • 11. रौद्र रस रौि क्रोध िामक स्र्ायी भाव से आकार मलया है | और यह आमतौर पर राक्षसों दािवो और बुरे आदममयो मे उत्भव होता है |और य्ह निधाथरकों द्वारा उत्पन्ि जैसे क्रोधकसथि, अचधकशेप, अवमि, अन्र्तवचिा आदद रौि तीि तरि क है - बोल से रौि िेपध्य से रौि और अग से रौि
  • 12. वीर रस वीर का भाव उत्साह िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। वीर का भाव बेहतर स्वभाव के लोग और उजाथवि उत्साह से ववषेशता प्राप्त करती है। इसका उत्पादि असम्मोह, अध्यवसय, िाय, पराक्रम, श्क्ती, प्रताप और प्रभाव आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होनत है। स्र्ैयथ, धैयथ, शौयथ, त्याग और वैसराद्य से इसका प्रनतनिचधत्व होता है। धृती, मनत, गवथ, आवेग, ऊग्रता, अक्रोश, स्मृत और ववबोध आदद अन्य इसके श्रणभंगुर भाविाएं है। येह तीि प्रकार के होते है: •दािवीर- जो कोई मभ दाि देके या उपहार देके वीर बिा हो, वोह् दािवीर कहलाता है। उदा:कणथ। •दयावीर- जो कोई मभ हर क्षेत्र के लोगो कक ओर सहािुभूनत कक भाविा प्रकट करता हो, वोह दयावीर कहलाता है। उदा:युद्चधक्ष्टर। •युद्यवीर-जो कोई मभ साहसी, बहादुर हो और मृत्यु के भय से ि दरता हो, युद्यवीर कहलाता है। उदा:अजुथि।
  • 13. भयानक रस भयािक का भाव भय िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। इसका उत्पादि, क्रू र जािवर के भयािक आवाजो से, प्रेतवाचधत घरों के दृषय से या अपिों कक मृत्यु कक खबर सुििे आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होता है। हार्, पैर, आखों के कं पि द्वारा इसका प्रनतनिचधत्व ककया जा सकता है। जडता, स्ंक, मोह, दैन्य, आवेग, कपलता, त्रासा, अप्समाथ और मरण इसकी श्रणभंगुर भाविाएं है। इसके साक्त्वक भाव इस प्रकार है: •स्तम्भ •स्वेद •रोमान्च •स्वरभेद •वेपर्ु •वैवन्यथ •प्रलय येह तीि प्रकार के होते है: व्यज, अपराध और ववत्रमसतक, अर्ाथत भय जो छल, आतंक, या गलत कायथ करिे से पैदा होता है।
  • 14. बीबत्स रस बीबत्स का भाव जुगुपसा िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। इसका उत्पादि, अवप्रय, दूवषत, प्रनतकू ल, आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होता है। सवथङसम्हर, मुखववकु िि, उल्लेखि, निमशवि, उद्वेजि, आदद द्वारा इसका प्रनतनिचधत्व ककया जा सकता है। आवेग, मोह, व्याचध इसकी श्रणभंगुर भाविाएं है। यह तीि प्रकार के होते है: •शुद्ध •उद्वेचग •क्षोभिा
  • 15. अद्भुत रस अद्भुत का भाव ववस्मय िामक स्र्ायी मणोदषा से उतपन्ि होता है। इसका उत्पादि ददव्यजिदरशि, ईक्प्सतावाक्प्त, उपविगमण्, देवाल, यगमण, सभादशथण, ववमणदशथण, आदद अन्य निधाथरक तत्वों द्वारा होता है। ियणववस्तार, अनिमेसप्रेक्षण, हषथ, साधुवाद, दािप्रबन्ध, हाहाकार और बाहुवन्दिा आदद द्वारा इसका प्रनतनिचधत्व ककया जा सकता है। आवेग, अक्स्र्रता, हषथ, उन्माद, धृनत, जडता इसकी श्रणभंगुर भाविाएं है। स्तम्भ, स्वेद, रोमान्च, अश्रु और प्रलय इस्के साक्त्वक भाव है। यह भाव दो तरह के होते है: •ददव्य •आिन्दज
  • 16. शान्त रस शांत रस का उल्लेख यहााँ कु छ दृक्ष्टयों से और आवश्यक है। इसके स्र्ायीभाव के संबंध में ऐकमत्य िहीं है। कोई शम को और कोई निवेद को स्र्ायी मािता है। रुिट (9 ई.) िे "सम्यक् ज्ञाि" को, आिंदवधथि िे "तृष्णाक्षयसुख" को, तर्ा अन्यों िे "सवथचचिवृविप्रशम", निववथशेषचचिवृवि, "घृनत" या "उत्साह" को स्र्ायीभाव मािा। अमभिवगुप्त िे "तत्वज्ञाि" को स्र्ायी मािा है। शांत रस का िाट्य में प्रयोग करिे के संबंध में भी वैमत्य है। ववरोधी पक्ष इसे ववकक्रयाहीि तर्ा प्रदशथि में कदठि मािकर ववरोध करता है तो समर्थक दल का कर्ि है कक चेष्टाओं का उपराम प्रदमशथत करिा शांत रस का उद्देश्य िहीं है, वह तो पयंतभूमम है। अतएव पात्र की स्वभावगत शांनत एवं लौककक दु:ख सुख के प्रनत ववराग के प्रदशथि से ही काम चल सकता है। िट भी इि बातों को और इिकी प्राक्प्त के मलए ककए गए प्रयत्िों को ददखा सकता है और इस दशा में संचाररयों के ग्रहण करिे में भी बाधा िहीं होगी। सवेंदिय उपराम ि होिे पर संचारी आदद हो ही सकते हैं। इसी प्रकार यदद शांत शम अवस्र्ावाला है तो रौि, भयािक तर्ा वीभत्स आदद कु छ रस भी ऐसे हैं क्जिके स्र्ायीभाव प्रबुद्ध अवस्र्ा में प्रबलता ददखाकर शीघ्र ही शांत होिे लगते हैं। अतएव जैसे उिका प्रदशथि प्रभावपूणथ रूप में ककया जाता है, वैसे ही इसका भी हो सकता है। जैसे मरण जैसी दशाओं का प्रदशथि अन्य स्र्ािों पर निवषद्ध है वैसे ही उपराम की पराकाष्ठा के प्रदशथि से यहााँ भी बचा जा सकता है।
  • 17. रसों का अन्तभाथव आदद स्र्ायीभावों के ककसी ववशेष लक्षण अर्वा रसों के ककसी भाव की समािता के आधार पर प्राय: रसों का एक दूसरे में अंतभाथव करिे, ककसी स्र्ायीभाव का नतरस्कार करके िवीि स्र्ायी माििे की प्रवृवि भी यदा-कदा ददखाई पड़ी है। यर्ा, शांत रस और दयावीर तर्ा वीभत्स में से दयावीर का शांत में अंतभाथव तर्ा बीभत्स स्र्ायी जुगुप्सा को शांत का स्र्ायी मािा गया है। "िागािंद" िाटक को कोई शांत का और कोई दयावीर रस का िाटक मािता है। ककं तु यदद शांत के तत्वज्ञािमूलक ववराम और दयावीर के करुणाजनित उत्साह पर ध्याि ददया जाए तो दोिों में मभन्िता ददखाई देगी। इसी प्रकार जुगुप्सा में जो ववकषथण है वह शांत में िहीं रहता। शांत राग-द्वेष दोिों से परे समावस्र्ा और तत्वज्ञािसंमममलत रस है क्जसमें जुगुप्सा संचारी मात्र बि सकती है। ठीक ऐसे जैसे करुण में भी सहािुभूनत का संचार रहता है और दयावीर में भी, ककं तु करुण में शोक की क्स्र्नत है और दयावीर में सहािुभूनतप्रेररत आत्मशक्क्तसंभूत आिंदरूप उत्साह की। अर्वा, जैसे रौि और युद्धवीर दोिों का आलंबि शत्रु है, अत: दोिों में क्रोध की मात्रा रहती है, परंतु रौि में रहिेवाली प्रमोदप्रनतकू ल तीक्ष्णता और अवववेक और युद्धवीर में उत्सह की उत्िु ल्लता और वववेक रहता है। क्रोध में शत्रुवविाश में प्रनतशोध की भाविा रहती है और वीर में धैयथ और उदारता। अतएव इिका परस्पर अंतभाथव संभव िहीं। इसी प्रकार "अंमषथ" को वीर का स्र्ायी माििा भी उचचत िहीं, क्योंकक अमषथ निंदा, अपमाि या आक्षेपादद के कारण चचि के अमभनिवेश या स्वामभमािावबोध के रूप में प्रकट होता है, ककं तु वीररस के दयावीर, दािवीर, तर्ा धमथवीर िामक भेदों में इस प्रकार की भाविा िहीं रहती।
  • 18. SUMMITTED TO:- RAMA SHARMA MAM SUMMITTED BY:- RAMANDEEP 10THB