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1
भारत में पररवार नियोजि की चुिौनतयों के
समाधाि हेतु अभभिव ववचार
संतोष कु मार झा
2
१. भूममका
समकालीन पररस्थिततयों का ध्यानपूर्वक अर्लोकन करें, तो थपष्टतः दृस्ष्टगोचर
होता है कक, वर्श्र् की करीब अट्ठारह प्रततशत आबादी को अपनी भौगोमलक-
सीमाओं में समेटे, भारतर्षव, एक राष्र-संघ के रूप में कई समाजों का सस्ममलन
है।
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दृश्य-पररकल्पना-१: भारत की महा-जनसंख्या (थर्-पररकस्ल्पत)
जैसा कक, हम जानते हैं, प्रत्येक समाज की अपनी मान्यताएँ, पररकल्पनाएं,
रीततयाँ-कु रीततयाँ एर्ं सीमाएँ होती हैं, भारतर्षव में भी हैं! भारतर्षव की महा-
4
जनसंख्या के पररपेक्ष्य में, इनमें से कु छ यिा-उचचत हैं, कु छ अर्व-उचचत हैं
जबकक, कु छ पूर्वतया अनुचचत कही जा सकती हैं। यहाँ एक अर्व-उचचत मान्यता
का संदभव लें, स्जसे हमारे कृ वष-प्रर्ान देश के प्रत्येक समाज ने थर्ीकारा और
कालांतर में, हमारी महा-जनसंख्या का महत्र्पूर्व कारक रहा, पररर्ार में स्जतने
अचर्क सदथय होंगे, उतनी ही अचर्क, पाररर्ाररक-श्रमशस्तत होगी:
जजतिे अधधक हाथ, उतिा अधधक काम।
जजतिा अधधक काम, उतिी अधधक आय॥
पद्य-१: श्रम, आय एर्ं जनसंख्या (थर्रचचत)
भारत ही नहीं, वर्श्र् के अन्य कई कृ वष-प्रर्ान देशों में भी उपरोतत जैसी अन्य
मान्यताओं को पनपने का भरपूर अर्सर ममला। कारर्, कृ वष-प्रर्ान देशों में
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खाद्यान्न एर्ं आर्ास-योग्य भूमम की प्रायः कमी नहीं रही है। साि ही, अगर
प्रजनन-योग्य सकारात्मक नैसचगवक पररस्थिततयाँ भी उपलब्र् हों, तो जनसंख्या
र्ृवि को कोई समाज अपने थतर पर रोकने की चेष्टा तयों ही करे? वपछले कु छ
र्षों में, भारत की थर्ाथ्य-व्यर्थिा भी काफ़ी बेहतर हुई है। ऐसे में, हमारे देश
की जनसंख्या-र्ृवि को कै से तनयंत्रित की जाये! जनसंख्या-र्ृवि का दूसरा
मत्र्पूर्व कारक, सामास्जक पुरुष-प्रर्ान एर्ं र्ंश-र्ादी सोच से उत्पन्न एक अन्य
सामास्जक मान्यता है, स्जसने जनसंख्या-र्ृवि की ददशा में, आग में घी डालने
का काम ककया:
बेटी तो ठहरी धि पराया, चलाएगी जा वंश पराया।
पुत्र बबिा यह दुनियााँ झूठी, पुत्र-रत्ि को प्राप्त करो॥
पद्य-२: गैर-अपनापन (थर्रचचत)
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समाज में आज, हम बहुतायत से ऐसे दंपस्त्तयों को देखते हैं, स्जन्होंने अपनी
पूरी स् ंदगी एक पुि-रत्न की प्रास्तत में लगाई। अपनी पूरी स् ंदगी में, पाँच या
कभी-कभी तो उससे से भी ज़्यादा बेदटयों को जन्म ददया। इतना ही नहीं, कु छ
घटनाओं में तो माँ बेचारी, एक बेटे की आशा मलए, गभव में एक और पल्लवर्त
होते नर्-जीर्न के साि, ककसी प्रजनन-संबंर्ी रोग को मलए भी चल बसी। तया
कोई बता सकता है कक, उन बेदटयों का तया होगा, स्जनकी, न तो माता रही...
न माता की ममता रही... न भाई का तयार ममला... और न ही, अब, अथपताल
के खचों के बाद, अर्ववर्क्षितत वपता के पास ही उनकी उचचत परर्ररश के मलए
सार्न शेष रहा! घटना का दोषी कौन है? बेदटयों के वपता या हमारा समाज?
इस समाज, ने ही तो इन दंपस्त्तयों को तनमनमलखखत मशिा दी:
7
तेरा वंश चलेगा तब, उत्पन्ि होगा जब पुत्र-रत्ि।
पुत्र बबिा ि मोक्ष भमलेगा, जीवि है मृग-तृष्णा॥
पद्य-३: पुि आर्ाररत र्ंश-परंपरा (थर्रचचत)
काश! हमारा समाज उपरोतत घटनाओं से कु छ सीख पाता! ... यह एक यि-
प्रश्न है! यही नहीं, एक-दूसरे में बुरी तरह उलझे अनेकानेक अन्य प्रश्न भी हैं।
अतः, आइये, इनमें से कु छ उलझी-गांठें खोलें और उनके समार्ान की ददशा में,
संभार्नाओं की तलाश करें!
8
२. तनदान हेतु संभार्नाओं की तलाश!
भारत ही नहीं, वर्श्र् के अनेक देशों की वर्शाल जनसंख्या उनके मलए समथया
बन चुकी है। अचर्क जनसंख्या का अिव है, इन देशों के सामने सामास्जक एर्ं
आचिवक वर्कास के अर्सरों का सीममत होना। भारत सरकार ने भी इस
आर्श्यकता को पहचाना और इस ददशा में कई थतरों पर वर्मभन्न उपाय ककए।
परंतु, तया भौगोमलक रूप से अतत-वर्थतृत, देश में ककसी सर्वसममत-तनदान तक
पहुँचना हमारे नीततज्ञों के मलए इतना आसान है, स्जतना यह तनबंर् मलखना?
तनश्चय ही, नहीं! अतः, आइये, इन में से कु छ समथयाओं का अध्ययन करें,
9
उन्हें समझने का प्रयास करें, चचंतन करें और अंततः एक सािवक समार्ान-त्रबन्दु
तक पहुँचने की कोमशश करें...
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समथया-२.१ गभभ-नियंत्रण उत्पाद जब दवा िहीं हैं, फिर दवा की दुकािों
से क्यों खरीदी जाएाँ?
२.१.१ मूल-कारर्:
गभव-तनयंिर् के उत्पादों को भारतर्षव में, दर्ा की दुकानों के माध्यम से आम
जनता के बीच उपलब्र् करर्ाया गया। शायद, दर्ा की दुकानों के वर्थतृत एर्ं
पूर्व-थिावपत तंि की सहज-उपलब्र्ता इसकी र्जह रही हो। परंतु, इसके
पररर्ाम-थर्रूप भारतीय जनमानस इसे दर्ा के रूप में देखने लगी। जन-मानस
ने सोचा- प्रजनन, तो मानर्-माि को प्रकृ तत का उपहार है, यह कोई बीमारी
नहीं, किर दर्ा तयों ली जाए? इसके साि ही बाजार जाकर इन उत्पादों को
खरीदना ‘लोक-लाज’ के कारर् अर्रुि हुआ है। आइए, इस ददशा में एक
उपयुतत समार्ान की तलाश करें!...
11
२.१.२ समथया-समार्ान:
इन सार्नों को दर्ा की दुकानों के थिान पर “द्र्ार पर उपलब्र् सुवर्र्ा-तंि” के
द्र्ारा प्रसाररत करने की आर्श्यकता है। गैर-सरकारी तंिों का समुचचत उपयोग
इस ददशा में सकारात्मक पररर्ाम दे सकता है। इस प्रकार, इन गभव-तनयंिर्
उत्पादों का न मसिव प्रयोग बढ़ेगा, बस्ल्क, ‘लोक-लाज’ की समथया भी समातत
हो जाएगी।
12
समथया-२.२ सरकारी िौकररयों के भलए आवश्यक, ियी न्यूितम पात्रता:
दो से कम भशशु!
२.२.१ मूल-प्रश्न:
कई देश, जहां जनसंख्या अभी कािी कम है, माता-वपताओं को अचर्क
संतानोत्पस्त्त के अर्सर पर पुरुथकृ त भी ककया जाता है। अतः, तया प्रिम-दृस्ष्ट
में, भारतर्षव के नागररकों के मलए यह तनदेश आमनर्ीय नहीं लगता, जहाँ,
पहले से ही सरकारी नौकरी के अर्सरों की कमी है? आइए, इस ददशा में एक
उपयुतत समार्ान की तलाश करें!...
२.२.२ समथया-समार्ान:
13
वर्गत कई दशकों से जारी शहरीकरर् एर्ं बढ़ती महंगाई ने थर्तः ही शहरों में
इस समथया का तनर्ारर् कर ददया है, या तेजी से करती जा रही है। आज के
हमारे शहरों में माता-वपता, अपनी आचिवक परेशातनयों से इस प्रकार तघरे रहते हैं
कक, थर्तः ही पररर्ार-वर्थतार की उनकी योजनाएँ एक या दो मशशु के बाद रुक
जाती हैं। तयोंकक, ददनानुददन, बढ़ती महँगाई के कारर्, मशक्षित माता-वपता दोनों
ही तेजी से काम-काजी होते जा रहे हैं। अतः, एकाकी पररर्ारों में, घर पर रह
कर नर्जात-मशशु की देखभाल कौन करे? आज, अपने-आप में यह एक जदटल
प्रश्न है!
हाँ, ग्रामीर् एर्ं अल्प-मशक्षित िेिों में, यह तनदेश राम-बार् सात्रबत होगी। अतः
इन िेिों में, इस तनदेश को न मसिव , नौकरी हेतु वर्ज्ञापनों के माध्यम से
14
प्रचाररत ककया जाना चादहए, बस्ल्क पयावतत सामास्जक प्रचार की भी आर्श्यकता
है।
15
समथया-२.३ जरत्रयों की वतभमाि दशा और ददशा: एक अधूरी समरया!
२.३.१ इततहास की जड़ों में गहरे तछपे कु छ मूल-कारर्:
सददयों तक गुलामी, सामंतर्ाद, जाततर्ाद और आचिवक-कं गाली की चगरफ़्त में
िँ से, इस देश के कमोबेश सभी िेिीय समाज में, पुरुष-प्रर्ानता को थर्ीकार
करना पड़ा। तयोंकक, शारीररक रूप से अपेिाकृ त अचर्क सशतत यह मानर्-र्गव
खेतों में अचर्क श्रम के साि-साि तात्कामलक राज्य-व्यर्थिा वर्थतार के मलए
समय-समय पर आयोस्जत युि एर्ं सत्ता-संघषव के मलए भी उपयुतत िा। इस
तात्कामलक, राज्य-व्यर्थिा प्रायोस्जत सामास्जक-सोच ने थर्तः ही पाररर्ाररक-
थतर पर, आचिवक एर्ं तनर्वय लेने के अचर्कारों को, पुरुषों की टोकरी में सजा
ददया।
16
पररर्ामतः, थिी-जातत का पाररर्ाररक सह-अस्थतत्र्, हामशये पर आ खड़ा हुआ।
ददनानुददन, स्थितत बद से बदतर होती गयी। व्यार्हाररक तौर पर स्थियाँ अब
पुरुषों की ‘अर्ाांचगनी’ न रह कर, ‘अनुगाममनी’ बन गईं। इस अर्थिा ने पररर्ार
तनयोजन की अर्र्ारर्ा को भारतर्षव में पयावतत नुकसान पहुंचाया:
पुरुष ही निणभय लेंगे, पररवार दहत में,
करेंगी मदहलाएं, अिुगमि, अिुपालि!
पद्य-४: अनुगाममनी (थर्रचचत)
२.३.२ पररर्तवन की र्तवमान अर्थिा:
वपछले कु छ दशकों में, आचिवक एर्ं सामास्जक-वर्कास के व्यापक-पररर्ाम
दृस्ष्टगोचर हुए हैं। पररर्ामथर्रूप, स्थियों की उपरोतत-दशा में कािी सुर्ार हुआ
17
है। माता-वपता, अब पुिों के ही समान, मशिा और वर्कास के अर्सर पुत्रियों को
भी सुलभ करर्ा रहे हैं। अतः, मशक्षित-स्थियाँ अब नौकरी के अर्सरों का लाभ
उठा, आचिवक, पाररर्ाररक एर्ं सामास्जक रूप से सशतत हो रही हैं। इस
पररर्तवन का असर, तनश्चय ही शददयों से चली आ रही, एकिि पुरुष-प्रर्ानता
की अर्र्ारर्ा पर भी पड़ा है। िलथर्रूप, स्थियाँ अपने पतत के साि, आज
समान रूप से पररर्ार तनयोजन एर्ं अन्य तनर्वयों में सहभागी हैं। इन पररर्ारों
में, न मसिव बच्चों के जन्म-दर तनयंत्रित हुए हैं, बस्ल्क, उनके थर्ाथ्य, मशिा
एर्ं अन्य मूलभूत आर्श्यकताओं पर भी समान रूप से दंपस्त्त पूर्व-स् ममेदारी
के साि ध्यान दे रहे हैं। परंतु, यह एक अर्व-सकारात्मक अर्थिा है!
२.३.३ अर्ूरी-समथया:
18
पाररर्ाररक एर्ं सामास्जक थतर पर, थिी-सशस्ततकरर् की यह प्रगततशील-
अर्थिा आज र्षव २०१५ तक भी, माि समाज के उच्च एर्ं माध्यम-र्गों में ही
प्रमुखता के साि उभर पायी है। थिी-सशस्ततकरर् की इस लहर को, अभी
समाज के आचिवक रूप से कमजोर र्गों में अभी और अचर्क पल्लवर्त करने
की आर्श्यकता है। “स्थियाँ”, अिावत “जननी”! जब र्े ही कमजोर होंगी, किर,
एक तनयोस्जत पररर्ार की पररकल्पना भला कै से की जा सकती है? आइए, इस
ददशा में एक उपयुतत समार्ान की तलाश करें!...
२.३.४ समथया-समार्ान:
सरकारी तंिों के साि-साि, थिानीय संथिाओं के द्र्ारा भी, थिी-सशस्ततकरर्
की ददशा में पयावतत प्रचार-प्रसार की आर्श्यकता है। ताकक, पाररर्ाररक-थतर पर
ग्रामीर् एर्ं छोटे-कथबों तक भी इस लहर को आत्मसात ककया जा सके ।
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समथया-२.४ संभोग-फिया के दौराि दंपजत्तयों द्वारा रव-नियंत्रण
२.४.१ मूल-प्रश्न:
भारतीय जन-मानस में र्ाममवक एर्ं सामास्जक थतर पर प्रचमलत एक लोक-
वर्चार का संदभव लें, स्जसके द्र्ारा र्मव-ज्ञातनयों ने पररर्ार तनयोजन की ददशा
में, अपना योगदान ककया है, तनतांत हाथयाथपद है- “वर्र्ादहत दंपस्त्तयों को
पररर्ार तनयोजन के मलए ब्रह्मचयव पालन करना चादहए!”
यहाँ प्रश्न है कक, तया संभोग-किया मसिव संतानोत्पस्त्त का माध्यम है, एक
प्रकृ तत-प्रदत्त मानर्ोचचत-वर्नोद का सार्न नहीं? हाँ, संभोग-किया मानर्ोचचत-
वर्नोद का सार्न भी है, स्जसके मूल में संतानोत्पस्त्त तनदहत है! अिावत, प्रत्येक
संभोग-किया का पररर्ाम संतानोत्पस्त्त हो यह आर्श्यक नहीं, परंतु, प्रत्येक
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संभोग-किया में, मानर्ोचचत-वर्नोद सस्मममलत है! इस त्य को नकारना बेमानी
है! हाँ, थर्-तनयंिर् अर्श्य जरूरी है। स्जसके िलथर्रूप, अनचाहा-गभव, दो बच्चों
के बीच अपयावतत समयान्तराल, वर्मभन्न प्रजनन-थर्ाथ्य से संबस्न्र्त शारीररक
कमजोररयाँ, मानमसक-अर्साद आदद अनेक कालांतर की समथयाओं से बचा जा
सकता है। आइए, इस ददशा में एक उपयुतत समार्ान की तलाश करें!...
२.४.२ समथया-समार्ान:
संभोग-किया के दौरान अगर संयममत-मागव अपनाया जाये तो तनश्चय ही,
उपरोतत समथयाओं से बचा जा सकता है। इसके मलए पुरुषों की सकिय
भागीदारी अचर्क आर्श्यक है। आइये, एक प्रासंचगक समार्ान पर वर्चार करें,
इस किया के द्र्ारा चरम-संभोग-आनंद की अर्थिा पर ककसी प्रकार का कोई
असर सहभागी-दंपस्त्त पर नहीं पड़ता और पुरुष-थखलन की किया थिी-जननांग
21
के बाहर समपन्न हो जाती है और गभव ठहरने की कोई संभार्ना शेष नहीं
रहती! तनमनमलखखत, चरर्बि प्रर्ाह-आरेख, के द्र्ारा इसे समझा जा सकता है:
चरर् व्याख्या
प्रिम चरर् संभोग से पूर्व, दंपस्त्तयों को पयावतत समय एक-दूसरे के साि
वर्नोद-पूर्वक त्रबताना चादहए, ताकक दोनों संभोग-किया के मलए
पूर्वतया आग्रही हो जाएँ!
द्वर्तीय चरर् अब, संभोग-किया सामान्य रूप से आरंभ करें!
22
तृतीय चरर् पुरुष-सहभागी इस बात का ध्यान रखें, कक, थिी-सहभागी उनसे
पहले चरम-संभोग-आनंद अर्थिा को प्रातत कर लें!
चतुिव चरर् अब, पुरुष-सहभागी अपने आनंद की ददशा में प्रयासरत हों और
संभोग-किया का पूर्व आनंद लें!
पंचम चरर् जैसे ही पुरुष को संभोग-किया के दौरान महसूस हो कक, अब
थखलन होने र्ाला है, आत्म-संयम का पररचय देते हुए, पुरुष-
जननांग को, थिी-जननांग से बाहर ले आयें!
23
अंततम चरर् इस प्रकार, पुरुष-थखलन की किया थिी-जननांग के बाहर
समपन्न हो जाएगी!
प्रर्ाह-आरेख-१: संभोग के दौरान दंपस्त्तयों द्र्ारा थर्-तनयंिर् की एक चरर्बि प्रकिया (थर्-वर्कमसत)
यह एक सिलतापूर्वक आजमाई हुई आसान प्रकिया है, स्जसे दंपस्त्तयों के द्र्ारा
मसिव िोड़े से मनोयोग एर्ं संयम के द्र्ारा दैतनक-जीर्न में प्रयोग ककया जा
सकता है। इस पितत के द्र्ारा, जहां, दंपस्त्त के चरम-संभोग-आनंद की अर्थिा
पर कोई असर नहीं पड़ता, र्हीं, अनचाहा-गभव ठहरने की संभार्ना भी शेष नहीं
रहती। जनसंख्या-तनयंिर् की ददशा में, यह एक कारगर उपाय मसि हो सकता
है। इसी प्रकार के दूसरे थर्-तनयंिर् तकनीकों को वर्कमसत करने एर्ं भारतीय
जन-मानस में पयावतत प्रचार की आर्श्यकता है।
24
३. ममिों! आइये सच्चे मन से संकल्प करें!
३.१ ...हम अपिे प्यारे पररवार के दहत में, प्रनत-दंपजत्त, बच्चों की संख्या,
एक या अधधकतम दो ही रखेंगे!
३.२ ...बच्चों को पल्लववत और प्ररिु दटत होिे के पयाभप्त एवं एक-समाि
साधि, उपलब्ध कराएंगे!
३.३ ...अपिे पररवार, समाज और भारतवषभ को वतभमाि से बेहतर भववष्य
देंगे!
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४. तनष्कषव
र्तवमान पररपेक्ष्य में, पररर्ार तनयोजन न मसिव व्यस्ततगत एर्ं पाररर्ाररक,
बस्ल्क, सामास्जक एर्ं राष्रीय आर्श्यकता है। पररर्ार तनयोजन, व्यस्ततगत
थतर पर जहां माता-वपता के सुखमय, शास्न्तवप्रय, थर्ाथ्य एर्ं दीघावयु जीर्न
के मलए यह आर्श्यक है, र्हीं, भार्ी-संतानों को पूर्व-पल्लवर्त एर्ं वर्कमसत
होने के बेहतर अर्सर भी प्रदान करता है।
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दृश्य-पररकल्पना-२: सुंदर पररर्ार, छोटा पररर्ार (थर्-पररकस्ल्पत)
चूंकक, देश में सीममत आर्ारभूत-सार्न उपलब्र् हैं, अतः प्रततव्यस्तत उपभोग्य-
संसार्नों की पयावततता भी बनी रहेगी। पररर्ाम-थर्रूप, हमारे देश की महा-
जनसंख्या से उत्पन्न वर्मभन्न कु संथकार, जैसे- चोरी, ठगी, बेईमानी आदद जैसी
घटनाओं पर थर्तः ही वर्राम लगेगा और उच्च-वर्चारों से सुसस्ज्जत, एक सुंदर
समाज का तनमावर् हो सके गा।
27
जब हर घर में होगा, पररवार-नियोजि,
भारत ववकभसत होगा, तब जि-मि!!
पद्य-५: तनयोस्जत पररर्ार एर्ं वर्कमसत भारत (थर्रचचत)
28
र्न्यर्ाद!

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भारत में परिवार नियोजन की चुनौतियों के समाधान हेतु अभिनव विचार: संतोष कुमार झा (हिन्दी)

  • 1. 1 भारत में पररवार नियोजि की चुिौनतयों के समाधाि हेतु अभभिव ववचार संतोष कु मार झा
  • 2. 2 १. भूममका समकालीन पररस्थिततयों का ध्यानपूर्वक अर्लोकन करें, तो थपष्टतः दृस्ष्टगोचर होता है कक, वर्श्र् की करीब अट्ठारह प्रततशत आबादी को अपनी भौगोमलक- सीमाओं में समेटे, भारतर्षव, एक राष्र-संघ के रूप में कई समाजों का सस्ममलन है।
  • 3. 3 दृश्य-पररकल्पना-१: भारत की महा-जनसंख्या (थर्-पररकस्ल्पत) जैसा कक, हम जानते हैं, प्रत्येक समाज की अपनी मान्यताएँ, पररकल्पनाएं, रीततयाँ-कु रीततयाँ एर्ं सीमाएँ होती हैं, भारतर्षव में भी हैं! भारतर्षव की महा-
  • 4. 4 जनसंख्या के पररपेक्ष्य में, इनमें से कु छ यिा-उचचत हैं, कु छ अर्व-उचचत हैं जबकक, कु छ पूर्वतया अनुचचत कही जा सकती हैं। यहाँ एक अर्व-उचचत मान्यता का संदभव लें, स्जसे हमारे कृ वष-प्रर्ान देश के प्रत्येक समाज ने थर्ीकारा और कालांतर में, हमारी महा-जनसंख्या का महत्र्पूर्व कारक रहा, पररर्ार में स्जतने अचर्क सदथय होंगे, उतनी ही अचर्क, पाररर्ाररक-श्रमशस्तत होगी: जजतिे अधधक हाथ, उतिा अधधक काम। जजतिा अधधक काम, उतिी अधधक आय॥ पद्य-१: श्रम, आय एर्ं जनसंख्या (थर्रचचत) भारत ही नहीं, वर्श्र् के अन्य कई कृ वष-प्रर्ान देशों में भी उपरोतत जैसी अन्य मान्यताओं को पनपने का भरपूर अर्सर ममला। कारर्, कृ वष-प्रर्ान देशों में
  • 5. 5 खाद्यान्न एर्ं आर्ास-योग्य भूमम की प्रायः कमी नहीं रही है। साि ही, अगर प्रजनन-योग्य सकारात्मक नैसचगवक पररस्थिततयाँ भी उपलब्र् हों, तो जनसंख्या र्ृवि को कोई समाज अपने थतर पर रोकने की चेष्टा तयों ही करे? वपछले कु छ र्षों में, भारत की थर्ाथ्य-व्यर्थिा भी काफ़ी बेहतर हुई है। ऐसे में, हमारे देश की जनसंख्या-र्ृवि को कै से तनयंत्रित की जाये! जनसंख्या-र्ृवि का दूसरा मत्र्पूर्व कारक, सामास्जक पुरुष-प्रर्ान एर्ं र्ंश-र्ादी सोच से उत्पन्न एक अन्य सामास्जक मान्यता है, स्जसने जनसंख्या-र्ृवि की ददशा में, आग में घी डालने का काम ककया: बेटी तो ठहरी धि पराया, चलाएगी जा वंश पराया। पुत्र बबिा यह दुनियााँ झूठी, पुत्र-रत्ि को प्राप्त करो॥ पद्य-२: गैर-अपनापन (थर्रचचत)
  • 6. 6 समाज में आज, हम बहुतायत से ऐसे दंपस्त्तयों को देखते हैं, स्जन्होंने अपनी पूरी स् ंदगी एक पुि-रत्न की प्रास्तत में लगाई। अपनी पूरी स् ंदगी में, पाँच या कभी-कभी तो उससे से भी ज़्यादा बेदटयों को जन्म ददया। इतना ही नहीं, कु छ घटनाओं में तो माँ बेचारी, एक बेटे की आशा मलए, गभव में एक और पल्लवर्त होते नर्-जीर्न के साि, ककसी प्रजनन-संबंर्ी रोग को मलए भी चल बसी। तया कोई बता सकता है कक, उन बेदटयों का तया होगा, स्जनकी, न तो माता रही... न माता की ममता रही... न भाई का तयार ममला... और न ही, अब, अथपताल के खचों के बाद, अर्ववर्क्षितत वपता के पास ही उनकी उचचत परर्ररश के मलए सार्न शेष रहा! घटना का दोषी कौन है? बेदटयों के वपता या हमारा समाज? इस समाज, ने ही तो इन दंपस्त्तयों को तनमनमलखखत मशिा दी:
  • 7. 7 तेरा वंश चलेगा तब, उत्पन्ि होगा जब पुत्र-रत्ि। पुत्र बबिा ि मोक्ष भमलेगा, जीवि है मृग-तृष्णा॥ पद्य-३: पुि आर्ाररत र्ंश-परंपरा (थर्रचचत) काश! हमारा समाज उपरोतत घटनाओं से कु छ सीख पाता! ... यह एक यि- प्रश्न है! यही नहीं, एक-दूसरे में बुरी तरह उलझे अनेकानेक अन्य प्रश्न भी हैं। अतः, आइये, इनमें से कु छ उलझी-गांठें खोलें और उनके समार्ान की ददशा में, संभार्नाओं की तलाश करें!
  • 8. 8 २. तनदान हेतु संभार्नाओं की तलाश! भारत ही नहीं, वर्श्र् के अनेक देशों की वर्शाल जनसंख्या उनके मलए समथया बन चुकी है। अचर्क जनसंख्या का अिव है, इन देशों के सामने सामास्जक एर्ं आचिवक वर्कास के अर्सरों का सीममत होना। भारत सरकार ने भी इस आर्श्यकता को पहचाना और इस ददशा में कई थतरों पर वर्मभन्न उपाय ककए। परंतु, तया भौगोमलक रूप से अतत-वर्थतृत, देश में ककसी सर्वसममत-तनदान तक पहुँचना हमारे नीततज्ञों के मलए इतना आसान है, स्जतना यह तनबंर् मलखना? तनश्चय ही, नहीं! अतः, आइये, इन में से कु छ समथयाओं का अध्ययन करें,
  • 9. 9 उन्हें समझने का प्रयास करें, चचंतन करें और अंततः एक सािवक समार्ान-त्रबन्दु तक पहुँचने की कोमशश करें...
  • 10. 10 समथया-२.१ गभभ-नियंत्रण उत्पाद जब दवा िहीं हैं, फिर दवा की दुकािों से क्यों खरीदी जाएाँ? २.१.१ मूल-कारर्: गभव-तनयंिर् के उत्पादों को भारतर्षव में, दर्ा की दुकानों के माध्यम से आम जनता के बीच उपलब्र् करर्ाया गया। शायद, दर्ा की दुकानों के वर्थतृत एर्ं पूर्व-थिावपत तंि की सहज-उपलब्र्ता इसकी र्जह रही हो। परंतु, इसके पररर्ाम-थर्रूप भारतीय जनमानस इसे दर्ा के रूप में देखने लगी। जन-मानस ने सोचा- प्रजनन, तो मानर्-माि को प्रकृ तत का उपहार है, यह कोई बीमारी नहीं, किर दर्ा तयों ली जाए? इसके साि ही बाजार जाकर इन उत्पादों को खरीदना ‘लोक-लाज’ के कारर् अर्रुि हुआ है। आइए, इस ददशा में एक उपयुतत समार्ान की तलाश करें!...
  • 11. 11 २.१.२ समथया-समार्ान: इन सार्नों को दर्ा की दुकानों के थिान पर “द्र्ार पर उपलब्र् सुवर्र्ा-तंि” के द्र्ारा प्रसाररत करने की आर्श्यकता है। गैर-सरकारी तंिों का समुचचत उपयोग इस ददशा में सकारात्मक पररर्ाम दे सकता है। इस प्रकार, इन गभव-तनयंिर् उत्पादों का न मसिव प्रयोग बढ़ेगा, बस्ल्क, ‘लोक-लाज’ की समथया भी समातत हो जाएगी।
  • 12. 12 समथया-२.२ सरकारी िौकररयों के भलए आवश्यक, ियी न्यूितम पात्रता: दो से कम भशशु! २.२.१ मूल-प्रश्न: कई देश, जहां जनसंख्या अभी कािी कम है, माता-वपताओं को अचर्क संतानोत्पस्त्त के अर्सर पर पुरुथकृ त भी ककया जाता है। अतः, तया प्रिम-दृस्ष्ट में, भारतर्षव के नागररकों के मलए यह तनदेश आमनर्ीय नहीं लगता, जहाँ, पहले से ही सरकारी नौकरी के अर्सरों की कमी है? आइए, इस ददशा में एक उपयुतत समार्ान की तलाश करें!... २.२.२ समथया-समार्ान:
  • 13. 13 वर्गत कई दशकों से जारी शहरीकरर् एर्ं बढ़ती महंगाई ने थर्तः ही शहरों में इस समथया का तनर्ारर् कर ददया है, या तेजी से करती जा रही है। आज के हमारे शहरों में माता-वपता, अपनी आचिवक परेशातनयों से इस प्रकार तघरे रहते हैं कक, थर्तः ही पररर्ार-वर्थतार की उनकी योजनाएँ एक या दो मशशु के बाद रुक जाती हैं। तयोंकक, ददनानुददन, बढ़ती महँगाई के कारर्, मशक्षित माता-वपता दोनों ही तेजी से काम-काजी होते जा रहे हैं। अतः, एकाकी पररर्ारों में, घर पर रह कर नर्जात-मशशु की देखभाल कौन करे? आज, अपने-आप में यह एक जदटल प्रश्न है! हाँ, ग्रामीर् एर्ं अल्प-मशक्षित िेिों में, यह तनदेश राम-बार् सात्रबत होगी। अतः इन िेिों में, इस तनदेश को न मसिव , नौकरी हेतु वर्ज्ञापनों के माध्यम से
  • 14. 14 प्रचाररत ककया जाना चादहए, बस्ल्क पयावतत सामास्जक प्रचार की भी आर्श्यकता है।
  • 15. 15 समथया-२.३ जरत्रयों की वतभमाि दशा और ददशा: एक अधूरी समरया! २.३.१ इततहास की जड़ों में गहरे तछपे कु छ मूल-कारर्: सददयों तक गुलामी, सामंतर्ाद, जाततर्ाद और आचिवक-कं गाली की चगरफ़्त में िँ से, इस देश के कमोबेश सभी िेिीय समाज में, पुरुष-प्रर्ानता को थर्ीकार करना पड़ा। तयोंकक, शारीररक रूप से अपेिाकृ त अचर्क सशतत यह मानर्-र्गव खेतों में अचर्क श्रम के साि-साि तात्कामलक राज्य-व्यर्थिा वर्थतार के मलए समय-समय पर आयोस्जत युि एर्ं सत्ता-संघषव के मलए भी उपयुतत िा। इस तात्कामलक, राज्य-व्यर्थिा प्रायोस्जत सामास्जक-सोच ने थर्तः ही पाररर्ाररक- थतर पर, आचिवक एर्ं तनर्वय लेने के अचर्कारों को, पुरुषों की टोकरी में सजा ददया।
  • 16. 16 पररर्ामतः, थिी-जातत का पाररर्ाररक सह-अस्थतत्र्, हामशये पर आ खड़ा हुआ। ददनानुददन, स्थितत बद से बदतर होती गयी। व्यार्हाररक तौर पर स्थियाँ अब पुरुषों की ‘अर्ाांचगनी’ न रह कर, ‘अनुगाममनी’ बन गईं। इस अर्थिा ने पररर्ार तनयोजन की अर्र्ारर्ा को भारतर्षव में पयावतत नुकसान पहुंचाया: पुरुष ही निणभय लेंगे, पररवार दहत में, करेंगी मदहलाएं, अिुगमि, अिुपालि! पद्य-४: अनुगाममनी (थर्रचचत) २.३.२ पररर्तवन की र्तवमान अर्थिा: वपछले कु छ दशकों में, आचिवक एर्ं सामास्जक-वर्कास के व्यापक-पररर्ाम दृस्ष्टगोचर हुए हैं। पररर्ामथर्रूप, स्थियों की उपरोतत-दशा में कािी सुर्ार हुआ
  • 17. 17 है। माता-वपता, अब पुिों के ही समान, मशिा और वर्कास के अर्सर पुत्रियों को भी सुलभ करर्ा रहे हैं। अतः, मशक्षित-स्थियाँ अब नौकरी के अर्सरों का लाभ उठा, आचिवक, पाररर्ाररक एर्ं सामास्जक रूप से सशतत हो रही हैं। इस पररर्तवन का असर, तनश्चय ही शददयों से चली आ रही, एकिि पुरुष-प्रर्ानता की अर्र्ारर्ा पर भी पड़ा है। िलथर्रूप, स्थियाँ अपने पतत के साि, आज समान रूप से पररर्ार तनयोजन एर्ं अन्य तनर्वयों में सहभागी हैं। इन पररर्ारों में, न मसिव बच्चों के जन्म-दर तनयंत्रित हुए हैं, बस्ल्क, उनके थर्ाथ्य, मशिा एर्ं अन्य मूलभूत आर्श्यकताओं पर भी समान रूप से दंपस्त्त पूर्व-स् ममेदारी के साि ध्यान दे रहे हैं। परंतु, यह एक अर्व-सकारात्मक अर्थिा है! २.३.३ अर्ूरी-समथया:
  • 18. 18 पाररर्ाररक एर्ं सामास्जक थतर पर, थिी-सशस्ततकरर् की यह प्रगततशील- अर्थिा आज र्षव २०१५ तक भी, माि समाज के उच्च एर्ं माध्यम-र्गों में ही प्रमुखता के साि उभर पायी है। थिी-सशस्ततकरर् की इस लहर को, अभी समाज के आचिवक रूप से कमजोर र्गों में अभी और अचर्क पल्लवर्त करने की आर्श्यकता है। “स्थियाँ”, अिावत “जननी”! जब र्े ही कमजोर होंगी, किर, एक तनयोस्जत पररर्ार की पररकल्पना भला कै से की जा सकती है? आइए, इस ददशा में एक उपयुतत समार्ान की तलाश करें!... २.३.४ समथया-समार्ान: सरकारी तंिों के साि-साि, थिानीय संथिाओं के द्र्ारा भी, थिी-सशस्ततकरर् की ददशा में पयावतत प्रचार-प्रसार की आर्श्यकता है। ताकक, पाररर्ाररक-थतर पर ग्रामीर् एर्ं छोटे-कथबों तक भी इस लहर को आत्मसात ककया जा सके ।
  • 19. 19 समथया-२.४ संभोग-फिया के दौराि दंपजत्तयों द्वारा रव-नियंत्रण २.४.१ मूल-प्रश्न: भारतीय जन-मानस में र्ाममवक एर्ं सामास्जक थतर पर प्रचमलत एक लोक- वर्चार का संदभव लें, स्जसके द्र्ारा र्मव-ज्ञातनयों ने पररर्ार तनयोजन की ददशा में, अपना योगदान ककया है, तनतांत हाथयाथपद है- “वर्र्ादहत दंपस्त्तयों को पररर्ार तनयोजन के मलए ब्रह्मचयव पालन करना चादहए!” यहाँ प्रश्न है कक, तया संभोग-किया मसिव संतानोत्पस्त्त का माध्यम है, एक प्रकृ तत-प्रदत्त मानर्ोचचत-वर्नोद का सार्न नहीं? हाँ, संभोग-किया मानर्ोचचत- वर्नोद का सार्न भी है, स्जसके मूल में संतानोत्पस्त्त तनदहत है! अिावत, प्रत्येक संभोग-किया का पररर्ाम संतानोत्पस्त्त हो यह आर्श्यक नहीं, परंतु, प्रत्येक
  • 20. 20 संभोग-किया में, मानर्ोचचत-वर्नोद सस्मममलत है! इस त्य को नकारना बेमानी है! हाँ, थर्-तनयंिर् अर्श्य जरूरी है। स्जसके िलथर्रूप, अनचाहा-गभव, दो बच्चों के बीच अपयावतत समयान्तराल, वर्मभन्न प्रजनन-थर्ाथ्य से संबस्न्र्त शारीररक कमजोररयाँ, मानमसक-अर्साद आदद अनेक कालांतर की समथयाओं से बचा जा सकता है। आइए, इस ददशा में एक उपयुतत समार्ान की तलाश करें!... २.४.२ समथया-समार्ान: संभोग-किया के दौरान अगर संयममत-मागव अपनाया जाये तो तनश्चय ही, उपरोतत समथयाओं से बचा जा सकता है। इसके मलए पुरुषों की सकिय भागीदारी अचर्क आर्श्यक है। आइये, एक प्रासंचगक समार्ान पर वर्चार करें, इस किया के द्र्ारा चरम-संभोग-आनंद की अर्थिा पर ककसी प्रकार का कोई असर सहभागी-दंपस्त्त पर नहीं पड़ता और पुरुष-थखलन की किया थिी-जननांग
  • 21. 21 के बाहर समपन्न हो जाती है और गभव ठहरने की कोई संभार्ना शेष नहीं रहती! तनमनमलखखत, चरर्बि प्रर्ाह-आरेख, के द्र्ारा इसे समझा जा सकता है: चरर् व्याख्या प्रिम चरर् संभोग से पूर्व, दंपस्त्तयों को पयावतत समय एक-दूसरे के साि वर्नोद-पूर्वक त्रबताना चादहए, ताकक दोनों संभोग-किया के मलए पूर्वतया आग्रही हो जाएँ! द्वर्तीय चरर् अब, संभोग-किया सामान्य रूप से आरंभ करें!
  • 22. 22 तृतीय चरर् पुरुष-सहभागी इस बात का ध्यान रखें, कक, थिी-सहभागी उनसे पहले चरम-संभोग-आनंद अर्थिा को प्रातत कर लें! चतुिव चरर् अब, पुरुष-सहभागी अपने आनंद की ददशा में प्रयासरत हों और संभोग-किया का पूर्व आनंद लें! पंचम चरर् जैसे ही पुरुष को संभोग-किया के दौरान महसूस हो कक, अब थखलन होने र्ाला है, आत्म-संयम का पररचय देते हुए, पुरुष- जननांग को, थिी-जननांग से बाहर ले आयें!
  • 23. 23 अंततम चरर् इस प्रकार, पुरुष-थखलन की किया थिी-जननांग के बाहर समपन्न हो जाएगी! प्रर्ाह-आरेख-१: संभोग के दौरान दंपस्त्तयों द्र्ारा थर्-तनयंिर् की एक चरर्बि प्रकिया (थर्-वर्कमसत) यह एक सिलतापूर्वक आजमाई हुई आसान प्रकिया है, स्जसे दंपस्त्तयों के द्र्ारा मसिव िोड़े से मनोयोग एर्ं संयम के द्र्ारा दैतनक-जीर्न में प्रयोग ककया जा सकता है। इस पितत के द्र्ारा, जहां, दंपस्त्त के चरम-संभोग-आनंद की अर्थिा पर कोई असर नहीं पड़ता, र्हीं, अनचाहा-गभव ठहरने की संभार्ना भी शेष नहीं रहती। जनसंख्या-तनयंिर् की ददशा में, यह एक कारगर उपाय मसि हो सकता है। इसी प्रकार के दूसरे थर्-तनयंिर् तकनीकों को वर्कमसत करने एर्ं भारतीय जन-मानस में पयावतत प्रचार की आर्श्यकता है।
  • 24. 24 ३. ममिों! आइये सच्चे मन से संकल्प करें! ३.१ ...हम अपिे प्यारे पररवार के दहत में, प्रनत-दंपजत्त, बच्चों की संख्या, एक या अधधकतम दो ही रखेंगे! ३.२ ...बच्चों को पल्लववत और प्ररिु दटत होिे के पयाभप्त एवं एक-समाि साधि, उपलब्ध कराएंगे! ३.३ ...अपिे पररवार, समाज और भारतवषभ को वतभमाि से बेहतर भववष्य देंगे!
  • 25. 25 ४. तनष्कषव र्तवमान पररपेक्ष्य में, पररर्ार तनयोजन न मसिव व्यस्ततगत एर्ं पाररर्ाररक, बस्ल्क, सामास्जक एर्ं राष्रीय आर्श्यकता है। पररर्ार तनयोजन, व्यस्ततगत थतर पर जहां माता-वपता के सुखमय, शास्न्तवप्रय, थर्ाथ्य एर्ं दीघावयु जीर्न के मलए यह आर्श्यक है, र्हीं, भार्ी-संतानों को पूर्व-पल्लवर्त एर्ं वर्कमसत होने के बेहतर अर्सर भी प्रदान करता है।
  • 26. 26 दृश्य-पररकल्पना-२: सुंदर पररर्ार, छोटा पररर्ार (थर्-पररकस्ल्पत) चूंकक, देश में सीममत आर्ारभूत-सार्न उपलब्र् हैं, अतः प्रततव्यस्तत उपभोग्य- संसार्नों की पयावततता भी बनी रहेगी। पररर्ाम-थर्रूप, हमारे देश की महा- जनसंख्या से उत्पन्न वर्मभन्न कु संथकार, जैसे- चोरी, ठगी, बेईमानी आदद जैसी घटनाओं पर थर्तः ही वर्राम लगेगा और उच्च-वर्चारों से सुसस्ज्जत, एक सुंदर समाज का तनमावर् हो सके गा।
  • 27. 27 जब हर घर में होगा, पररवार-नियोजि, भारत ववकभसत होगा, तब जि-मि!! पद्य-५: तनयोस्जत पररर्ार एर्ं वर्कमसत भारत (थर्रचचत)