हाल ही में एक रेटिंग्स एजेंसी ने भारत की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स को लेकर अपने निगेटिव आउटलुक को अपग्रेड कर स्टेबल कर दिया है। आइए जानते हैं कि आखिर सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स और आउटलुक होते क्या हैं?
रेटिंग्स कैसे दी जाती है?
आमतौर पर पूरी दुनिया में स्टैंडर्ड एंड पूअर (एसएंडपी), फिच और मूडीज इन्वेस्टर्स ही सॉवरेन रेटिंग्स तय करती हैं। हरेक एजेंसी के अपने तरीके हैं और वह उन्हीं के अनुसार यह तय करती है कि कोई देश कर्ज पाने की कितनी योग्यता रखता है। वित्तीय घाटा और सरकारी कर्ज- जीडीपी अनुपात, इन्हीं सब आधार पर एजेंसियां अपनी रेटिंग्स देती हैं।
रेटिंग एजेंसी फिच ने दो साल के बाद हाल ही में भारत की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग को लेकर अपने निगेटिव (नकारात्मक) आउटलुक को अपग्रेड कर स्टेबल (स्थिर) कर दिया है।
इस तरह से विश्व की तीनों बड़ी रेटिंग एजेंसियों - स्टैंडर्ड एंड पूअर (एसएंडपी), फ़िच और मूडीज की भारत को लेकर रेटिंग एक जैसी हो गई है। इससे पहले मूडीज ने भी भारत की रेटिंग पर अपने निगेटिव आउटलुक को बढ़ाकर स्टेबल किया था।
क्या होती है सॉवरेन रेटिंग्स ?
बाजार में किसी की साख का जो मतलब है, एकदम वही मतलब अंतरराष्ट्रीय बाजार में देश की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स को लेकर है, यानी साख अगर अच्छी है तो क़र्ज आसानी से और कम ब्याज पर मिल जाएगा और अगर क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं तो उनकी वापसी का दबाव भी नहीं होगा।
दूसरी ओर रेटिंग गिर जाने का मतलब है कि क़र्ज़ मिलना मुश्किल होगा और जो क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं, उनकी वापसी का दबाव बढ़ेगा। इसलिए अंतराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां विभिन्न देशों की सरकारों की कर्ज चुकाने, की क्षमता के आधार पर सॉवरेन रेटिंग तय करती हैं।
इसके लिए वह उस देश विशेष की अर्थव्यवस्था, मार्केट और राजनीतिक जोखिम को आधार मानती हैं। रेटिंग यह बताती है कि एक देश भविष्य में अपनी देनदारियों को चुका सकेगा या नहीं? यह रेटिंग टॉप इन्वेस्टमेंट ग्रेड से लेकर जंक ग्रेड तक होती हैं।
भारत को किस तरह की मिली हैं रेटिंग्स?
फिलहाल तीनों प्रमुख रेटिंग एजेंसियों की तरफ से भारत को एक जैसी रेटिंग्स मिली हुई है। मतलब स्टैंडर्ड एंड पूअर (एसएंडपी) और फ़िच की तरफ से स्टेबल आउटलुक के साथ BBB और मूडीज की तरफ से स्टेबल आउटलुक के साथ Baa3 मिली हुई है।
मूडीज ने नवंबर 2017 में भारत की रेटिंग को अपग्रेड कर Baa2 किया था, लेकिन फिर जून 2020 में डाउनग्रेड कर इसे Baa3 कर दिया। मतलब भारत की अभी जो मौजूदा क्रेडिट रेटिंग है, वह इन्वेस्टमेंट ग्रेड के सबसे निचले पायदान पर है।
इसका अर्थ ये है कि भारत सरकार की तरफ से जारी होनेवाले लंबी अवधि के बॉन्ड अभी निवेश के लायक माने जाएंगे, बस इनमें जोख़िम मीडियम बढ़ा हुआ रहेगा। इससे नीचे की रेटिंग स्पेकुलेटिव यानी जंक ग्रेड (जोख़िम ज्यादा, बहुत ज़्यादा और डिफॉल्ट) में आती है।
2004 से पहले मूडीज की तरफ से भारत को स्पेकुलेटिव ग्रेड की रेटिंग मिली हुई थी। फ़िच की तरफ से, अगस्त 2006 से पहले और स्टैंडर्ड एंड पूअर की तरफ से 2007 से पहले भी स्पेकुलेटिव ग्रेड की रेटिंग ही भारत को मिली हुई थी।
सॉवरेन रेटिंग्स का क्या रहता है मतलब?
किसी देश की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स यह बताती है कि वह कर्ज दिए जाने के कितना लायक है। सरकारें अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार में आसान पहुंच बनाने के लिए ऊंची क्रेडिट रेटिंग चाहती हैं। ये रेटिंग अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार में घरेलू कर्जदारों की रेटिंग को भी प्रभावित करती हैं।
देशों की साख मापने वाली रेटिंग्स हमारे लिए इनके क्या मायने हैं सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग्स और आउटलुक होते क्या हैं.pdf
1. देशों की साख मापने वाली रेटिंग्स हमारे लिए इनक
े
क्या मायने हैं ? सॉवरेन क्र
े डिट रेटिंग्स और
आउटलुक होते क्या हैं?
हाल ही में एक रेटिंग्स एजेंसी ने भारत की सॉवरेन क्र
े डिट रेटिंग्स को लेकर अपने
निगेटिव आउटलुक को अपग्रेड कर स्टेबल कर दिया है। आइए जानते हैं कि आखिर
सॉवरेन क्र
े डिट रेटिंग्स और आउटलुक होते क्या हैं?
2. रेटिंग्स क
ै से दी जाती है?
आमतौर पर पूरी दुनिया में स्टैंडर्ड एंड पूअर (एसएंडपी), फिच और मूडीज इन्वेस्टर्स
ही सॉवरेन रेटिंग्स तय करती हैं। हरेक एजेंसी क
े अपने तरीक
े हैं और वह उन्हीं क
े
अनुसार यह तय करती है कि कोई देश कर्ज पाने की कितनी योग्यता रखता है।
वित्तीय घाटा और सरकारी कर्ज- जीडीपी अनुपात, इन्हीं सब आधार पर एजेंसियां
अपनी रेटिंग्स देती हैं।
रेटिंग एजेंसी फिच ने दो साल क
े बाद हाल ही में भारत की सॉवरेन क्र
े डिट रेटिंग को
लेकर अपने निगेटिव (नकारात्मक) आउटलुक को अपग्रेड कर स्टेबल (स्थिर) कर
दिया है।
इस तरह से विश्व की तीनों बड़ी रेटिंग एजेंसियों – स्टैंडर्ड एंड पूअर (एसएंडपी), फ़िच
और मूडीज की भारत को लेकर रेटिंग एक जैसी हो गई है। इससे पहले मूडीज ने भी
भारत की रेटिंग पर अपने निगेटिव आउटलुक को बढ़ाकर स्टेबल किया था।
3. क्या होती है सॉवरेन रेटिंग्स ?
बाजार में किसी की साख का जो मतलब है, एकदम वही मतलब अंतरराष्ट्रीय बाजार
में देश की सॉवरेन क्र
े डिट रेटिंग्स को लेकर है, यानी साख अगर अच्छी है तो क़र्ज
आसानी से और कम ब्याज पर मिल जाएगा और अगर क़र्ज़ पहले से ले रखे हैं तो
उनकी वापसी का दबाव भी नहीं होगा।
दूसरी ओर रेटिंग गिर जाने का मतलब है कि क़र्ज़ मिलना मुश्किल होगा और जो क़र्ज़
पहले से ले रखे हैं, उनकी वापसी का दबाव बढ़ेगा। इसलिए अंतराष्ट्रीय रेटिंग
एजेंसियां विभिन्न देशों की सरकारों की कर्ज चुकाने, की क्षमता क
े आधार पर सॉवरेन
रेटिंग तय करती हैं।
इसक
े लिए वह उस देश विशेष की अर्थव्यवस्था, मार्के ट और राजनीतिक जोखिम को
आधार मानती हैं। रेटिंग यह बताती है कि एक देश भविष्य में अपनी देनदारियों को
चुका सक
े गा या नहीं? यह रेटिंग टॉप इन्वेस्टमेंट ग्रेड से लेकर जंक ग्रेड तक होती हैं।
4. भारत को किस तरह की मिली हैं रेटिंग्स?
फिलहाल तीनों प्रमुख रेटिंग एजेंसियों की तरफ से भारत को एक जैसी रेटिंग्स मिली
हुई है। मतलब स्टैंडर्ड एंड पूअर (एसएंडपी) और फ़िच की तरफ से स्टेबल आउटलुक
क
े साथ BBB और मूडीज की तरफ से स्टेबल आउटलुक क
े साथ Baa3 मिली हुई है।
मूडीज ने नवंबर 2017 में भारत की रेटिंग को अपग्रेड कर Baa2 किया था, लेकिन
फिर जून 2020 में डाउनग्रेड कर इसे Baa3 कर दिया। मतलब भारत की अभी जो
मौजूदा क्र
े डिट रेटिंग है, वह इन्वेस्टमेंट ग्रेड क
े सबसे निचले पायदान पर है।
इसका अर्थ ये है कि भारत सरकार की तरफ से जारी होनेवाले लंबी अवधि क
े बॉन्ड
अभी निवेश क
े लायक माने जाएंगे, बस इनमें जोख़िम मीडियम बढ़ा हुआ रहेगा।
इससे नीचे की रेटिंग स्पेक
ु लेटिव यानी जंक ग्रेड (जोख़िम ज्यादा, बहुत ज़्यादा और
डिफॉल्ट) में आती है।
5. 2004 से पहले मूडीज की तरफ से भारत को स्पेक
ु लेटिव ग्रेड की रेटिंग मिली हुई थी।
फ़िच की तरफ से, अगस्त 2006 से पहले और स्टैंडर्ड एंड पूअर की तरफ से 2007 से
पहले भी स्पेक
ु लेटिव ग्रेड की रेटिंग ही भारत को मिली हुई थी।
सॉवरेन रेटिंग्स का क्या रहता है मतलब?
किसी देश की सॉवरेन क्र
े डिट रेटिंग्स यह बताती है कि वह कर्ज दिए जाने क
े कितना
लायक है। सरकारें अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार में आसान पहुंच बनाने क
े लिए ऊ
ं ची
क्र
े डिट रेटिंग चाहती हैं। ये रेटिंग अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार में घरेलू कर्जदारों की रेटिंग
को भी प्रभावित करती हैं।
कई देश अपनी जरूरतें पूरी करने क
े लिए दुनियाभर क
े निवेशकों से कर्ज लेते हैं। ये
निवेशक कर्ज देने से पहले उस देश की रेटिंग को ध्यान में रखते हैं। एजेंसियां क्र
े डिट
रेटिंग तय करते वक्त समय पर मूलधन और ब्याज चुकाने की क्षमता पर फोकस
करती हैं। ज्यादा रेटिंग पर जोखिम कम माना जाता है।
6. इससे ज्यादा रेटिंग वाले देशों को कम ब्याज दरों पर कर्ज मिल जाता है। हालांकि क
ु छ
अध्ययनों से उजागर होता है कि पक्षपात भी किया जाता है। एजेंसियां विकसित देशों
को ऊ
ं ची रेटिंग देती हैं, भले ही उनक
े मैक्रोइकोनॉमिक आधार कमजोर क्यों न हों।
आउटलुक में बदलाव क
े क्या हैं मायने?
आमतौर पर रेटिंग्स, आउटलुक में बदलाव क
े आधार पर तय होती है। आउटलुक की
तीन क
ै टेगरी हैं – निगेटिव, स्टेबल और पॉजिटिव। भारत का आउटलुक स्टेबल है।
सामान्य तौर पर जिस देश का आउटलुक पॉजिटिव होता है, उसकी रेटिंग क
े अपग्रेड
होने की संभावना ज्यादा रहती है।
स्टेबल आउटलुक वाले देश की रेटिंग में आने वाले एक-दो साल तक बदलाव की उम्मीद
नहीं होती जबकि निगेटिव आउटलुक वाले देशों की रेटिंग में निकट भविष्य में डाउनग्रेड की
आशंका होती है, मतलब हालात और ख़राब होने का डर होता है। वैसे ये जरूरी नहीं है।
7. भारत क
े लिए अच्छी रेटिंग्स क्यों हैं महत्वपूर्ण ?
सामान्य तौर पर भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाज़ार से कर्ज नहीं लेती है। फिर
भी देश की रेटिंग महत्व रखती है, क्योंकि पेंशन फ
ं ड, बैंक और अन्य पोर्टफोलियो
निवेशक जैसे विदेशी संस्थागत निवेशक जिस देश में शेयरों और बॉन्ड्स में निवेश
करना चाहते हैं, वे उस देश की रेटिंग को ध्यान में रखते हैं।
कम रेटिंग क
े कारण स्टॉक मार्के ट से विदेशी निवेशकों क
े बाहर जाने की संभावना
बनी रहती है। इसक
े अलावा नए निवेश क
े बंद होने की आशंका भी रहती है। इसलिए
भारत सहित हर देश अच्छी रेटिंग की आकांक्षा रखता है।
जब कोई भारतीय क
ं पनी किसी बाहरी क
ं पनी से कमर्शियल लोन लेती है तो उसे
एक्सटर्नल कमर्शियल बोरोइंग (ईसीबी) कहते हैं। ईसीबी लोन की सुविधा क
े जरिए
भारतीय क
ं पनियां कम लागत पर बाहरी वित्तीय संस्थाओं से धनराशि उधार ले
सकती हैं।
देश की क्र
े डिट रेटिंग गिरने क
े साथ ही सभी क
ं पनियों की रेटिंग की अधिकतम सीमा
भी वही हो जाती है। यानी निजी क
ं पनियों क
े लिए भी क़र्ज़ उठाना मुश्किल और
8. महंगा हो जाता है। जिनक
े बॉड या डिबेंचर पहले से बाज़ार में हैं, उनक
े भी भाव गिर
जाते हैं।
क्र
े डिट रेटिंग्स एजेंसियों का क्यों बढ़ा है महत्व?
यदि रेटिंग एजेंसियों द्वारा किसी देश को अच्छी रेटिंग मिल जाती है तो पूरे विश्व क
े
निवेशक उस देश में निवेश करने क
े लिए उत्साहित हो जोते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि
उनको यह विश्वास हो जाता है कि वे जिस जगह पर निवेश करने जा रहे हैं, वहां पर
उनको अच्छा रिटर्न मिलेगा और इस तरह उनका पैसा भी सुरक्षित रहेगा।
देश क
े साथ-साथ यही बात किसी क
ं पनी क
े बारे में भी लागू होती है। यदि किसी
क
ं पनी की रेटिंग, एजेंसियों द्वारा अच्छी कर दी गई है तो उस क
ं पनी विशेष को
बाजार से पैसे उधार लेने में परेशानी नहीं होगी।
10. BBB+, BBB, BBB- Baa1, Baa2, Baa3 लोवर मीडियम ग्रेड
BB+, BB, BB- Ba1, Ba2, Ba3 नॉन इन्वेस्टमेंट ग्रेड
B+, B, B- B1,B2, B3 जोखिम
CCC+, CCC, CCC-, Caa1, Caa2, Caa3 अधिक जोखिम
CC, C, D Ca, C, D बहुत अधिक जोखिम
11. ( नोट: भारत को BBB और Baa3 रेटिंग्स मिली हुई है।)
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