3. उत्तम स्नेह का दोषोों पर प्रभाव
घृत, मज्जा , वसा और तैल उत्तरोत्तर वातघ्न और कफघ्न, तथा यथापूवव पपत्तघ्न हैं।
घृतः उत्तम पपत्तघ्न
मज्जाः वातकफघ्न, पपत्तघ्नतर।
वसाः पपत्तघ्नी, वातकफघ्नतर।
तैलः उत्तम वातकफघ्न।
घृत, तैल, वसा और मज्जा उत्तरोत्तर गुरु हैं।
4. स्नेह प्रववचारणा
प्रपवचारणा - स्नेह सपहत भोजन कल्पना ।
सुक
ु मारं क
ृ शं वृद्धं पशशुं स्नेहपिषं तथा ।
तृष्णातवमुष्णकाले च सह भक्तेन पाययेत् ।। Su Chi 31/37
6. स्नेहपाक
जल, स्वरस, क्वाथ िीर आपद क
े साथ कल्क पमलाकर स्नेह को पसद्ध
करना स्नेह पाक है।
1. मृदुपाकः जब स्नेह और कल्क में तुल्यता या समानता होती है। अथवा जब
औषपि एवं स्नेह पृथक हैं।
2. मध्यम पाकः जब अवपशष्ट भाग मृदु और सांद्र हो जाये और दवी से न
पचपक
े । अथवा जब औषपि मिुस्तिष्ट क
े समान पनमवल और अपवलेपप हो
जाये।
3. खर पाकः जब अवपशष्ट भाग घन हो जाये और दबाने से उसकी वती बनने
लगे। अथवा जब औषपि क
ु छ जलने से क
ृ ष्ण वणव, पवशद और पचक्कण
हो जाये।
8. प्रयोग क
े आिार पर स्नेहन क
े दो भेद होते हैं।
1. बाह्य स्नेहन
2. अभ्यन्तर स्नेहन
9. अभ्योंग
• अभ्यंग का प्रयोग पशर, पााँव और कणव में पवशेषतः करना चापहए।
• पशर क
े अभ्यंग हेतु सुखोष्ण अथवा शीत स्नेह का प्रयोग करना चापहए।
• अन्य शरीर अवयवों पर उष्ण स्नेह का प्रयोग करना चापहए।
• शीत ऋतु में उष्ण और उष्ण ऋतु में शीत अथवा सुखोष्ण स्नेह का प्रयोग करना
चापहए।
• शरीर अभ्यंग से पूवव आतुर का कणव पूरण करना चापहए।
• शरीर क
े दीघव अवयवों, जैसे सस्ति एवं भुजा इत्यापद पर अनुलोम गपत में अभ्यंग
करना चापहए।
• अंस एवं जानु इत्यापद सस्तिस्थानों पर वतुवलाकार गपत से अभ्यंग करना चापहए।
10. Seven positions for Abhyanga
1. पााँव सीिे रखे हुए बैठकर
2. पीठ क
े बल पलटाकर
3. वाम पार्श्व पलटाकर
4. उदर क
े बल पलटाकर
5. दपिण पार्श्व पलटाकर
6. पीठ क
े बल पलटाकर
7. पााँव सीिे रखे हुए बैठकर
11. अवयव काल
रोमक
ू प 300 मात्रा
त्वचा 400 मात्रा
रक्त 500 मात्रा
मांस 600 मात्रा
मेदस 700 मात्रा
अस्तस्थ 800 मात्रा
मज्जा 900 मात्रा
रोमक
ू प 300 मात्रा
अभ्योंग
अववि
900 मात्रा तक लगभग 5 पमनट का समय होता है।
सात अवस्थाओं में हर अवस्था में 5 पमनट तक, क
ु ल 35 पमनट तक करना
चापहए।
12. अभ्योंग क
े अयोग्य
पनम्नपलस्तखत अवस्थाओं में अभ्यंग नहीं करना चापहए।
1. कफ रोग
2. अजीणव
3. सामदोष
4. तरुण ज्वर
5. शोपित (वमन/ पवरेचन)
6. पनरूह बस्तस्त क
े पश्चात्
7. अपिमांद्य
8. सतपवण समुत्थ रोग
13. अभ्योंग क
े लाभ
1. त्वक दृढ़ता।
2. वातहर।
3. क्लेश सहत्व।
4. व्यायाम सहत्व।
5. अपभघात से अपिक कष्ट नहीं होता।
6. अत्यपिक बल प्रयोग से भी कोई
पवकार नहीं होता
7. मृदु स्पशव एवं सुपवभक्त शरीर
8. जरा व्यस्तक्त को पवलम्ब से प्रभापवत
करती है।
9. कफ-वात पनयंत्रण ।
10. िातु पुपष्ट
11. मृजा - त्वचा शुद्ध होती है
12. वणव बलप्रद ।
13. श्रमहर ।
14. दृपष्टप्रसादकर ।
15. आयुष्यकर ।
16. स्वपनकर ।
14. पादाभ्योंग क
े गुण
1. पनद्रा कर
2. शरीर सुख कर
3. चिुष्य
4. श्रम हर
5. सुस्ति हर
6. पाद त्वक मृदुकर
15. पादाघात
संवाहक िारा अपने पााँव से पीड़न करना पादाघात कहलाता है। इसमें रोगी
क
े शरीर पर अभ्यंग एवं मदवन से अपिक दबाव डाला जाता है।
सुश्रुत - पदनचयाव में व्यायाम क
े पश्चात् पादाघात।
वाग्भट - हेमंत ऋतुचयाव में शरीर पर वातनाशक तैल लगाकर अभ्यंग, मदवन
और पफर पादाघात।
इसमें रोगी क
े शरीर की गंभीर िातुओं का अभ्यंग सुखपूववक होता है।
पादाघात करने वाले संवाहक को अपने शरीर को पकसी मजबूत रज्जु क
े
सहारे स्तस्थर करक
े एकाग्र होकर रोगी क
े शरीर पर अपने पााँव से
पनिावररत दबाव डालते हुए पीड़न करना चापहए।
पादाघात क
े योग्य:
1. हेमंत ऋतु में पादाघात का उपयोग करना चापहए।
2. पजस आतुर की गंभीर िातुओं का अभ्यंग करना हो।
3. पृष्ठ, कटी, उरु इत्यापद मांसल स्थानों पर अभ्यंग हेतु
अयोग्य:
1. त्वक, रक्त एवं मांस गत साम वात की अवस्था में पादाघात नहीं करना
चापहए।
2. अपभघात की स्तस्थपत में पादाघात नहीं करना चापहए।
16. कणण पूरण
औषिपसद्ध स्नेह को आतुर क
े कानों में िारण करवाना कणव पूरण है।
कणव पूरण आतुर क
े शूल का शमन होने तक अथवा स्वस्थ व्यस्तक्त में 100
मात्रा तक िारण करना चापहए।
कणव पूरण हेतु आतुर की व्यापि क
े अनुसार पकसी भी वातनाशक तैल का
प्रयोग करना चापहए।
कणण पूरण क
े लाभ:
पनत्य कणव पूरण का सेवन करने से पनम्नपलस्तखत रोग नहीं होते ।
वातज कणव रोग
मन्या ग्रह
हनु ग्रह
उच्ेःश्रुपत
बापियव