3. परिचय
“ग्रहणीमाश्रितोऽग्नि ग्रहणी दोषो।”
(च.श्रच. १५/१-२ पि चक्र. की टाका)
आचायय चक्रपाणण क
े अिुसाि ग्रहणी में ग्थित अग्नि दोष
को ही ग्रहणी दोष कहते हैं ग्रहणी अन्ि सेवि क
े पश्चात
अन्ि का धािण पाचि शोषण तिा अवशशष्ट पदािय
का मलरूप में ववसर्यि किती है।
“षष्ठी वपत्तधिािाम या कला परिकीर्तयता।
पक्वामाशयमध्यथिा ग्रहणी सा प्रकीर्तयता।।”
(सु.उ. ४०/१६९)
4. • आचायय सुिुत मतािुसाि पक्वाशय है तिा आमाशय क
े मध्य
में ग्थित षष्ठी वपत्त धिा कला की ग्रहणी कहलाती है इसी
ग्रहणी में होिे वाली दुग्ष्ट को ग्रहणी िोग कहते हैं।
प्रमुख संदर्य :-
1. चिक संहहता श्रचककत्सा थिाि अध्याय-15
2. सुिुत संहहता उत्ति तंत्र अध्याय-40
3. अष्टांग हृदय र्िदाि थिाि अध्याय-8
4. अष्टांग हृदय श्रचककत्सा थिाि अध्याय-10
5. माधव र्िदाि अध्याय-4
5. र्िदाि :-
1. अर्तसाि से ग्रशसत होिा
2. अर्तसाि से र्िवृत होिा
3. र्ठिाग्नि का मंद होिा
4. र्ोर्ि िही कििा
5. अर्ीणय होिे पि र्ोर्ि कििा
6. ववषमाशि, असात््य अन्ि सेवि
7. गुरु,शीत,दुष्ट,रुक्ष एवं बासी र्ोर्ि कििा
8. वमि,वविेचि,थिेह पाि का ववभ्रम
9. देश,काल, ऋतु का वैष्य
10. वेगों का धािण
11. अर्त मात्रा मे र्ोर्ि कििा
6. • स्प्राग्तत :-
अपक्वं धाियत्यन्िं पक्वं सृर्र्त पाश्वयतः।
दुबयलाग्निबला दुष्टात्वाममेव ववमुञ्चर्त।।
(च.श्रच. १५/५७)
अर्तसाि अर्ी शान्त हुआ हो अिवा यह अर्ी चालू हो ऐसी
ग्थिर्त में पुरुष अग्नि को मन्द
कििे वाले अहहत आहाि औि ववहाि का अर्तयोग किे तो उसकी
अग्नि मंद हो र्ाती हैं परिणामतया
वह लघु अन्ि का र्ी पूणयतयाः परिपाक िही कि पाता तत्पश्चात्
वपत्त धिा कला (ग्रहणी) र्ी दूवषत
होकि अन्िपाि का पचि होिे तक उसे धािण ककये िखिे का
अपिा प्राकृ त कमय छोड़ देती हैं।
फलथवरुप, वह अपक्व ही अन्ि पाि को पुिःपुिः पक्वाशय में छोड़
देती है इसी िोग की ग्रहणी यह
संज्ञा होती है।
7. अर्तसाि क
े र्िदाि का सेवि
अष्ठ आहाि ववध ववशेषायतिों की उपेक्षा कि र्िदाि सेवि
तिा श्रचन्ता, र्य, क्रोध, शोक क
े कािण
अग्निमान्ध
अर्तसाि
अग्नि अश्रधष्ठाि दुग्ष्ट (ग्रहणी ववकृ र्त)
आहाि पाचिार्ाव पाचक स्रावों का अल्प स्रवण
पाचक माध्यमो की दुग्ष्ट
आम की उत्पवत्त
साम मल एवं आम ववष की उत्पवत्त
मुहुबयद्धं, मुहयद्रवं
शूल क
े साि कर्ी पक्व कर्ी अपक्व मल प्रवृवत्त
8. पूवयरूप :-
पूवयरूपं तु तथयेदं तृष्णालथयं बलक्षयः।
ववदाहोऽन्िथय पाकश्च श्रचिात् कायथय गरिवम ्।।
(च.श्रच. १५/५५)
चरक शुश्रुत वाग्भट्ट
तृष्णा
आलस्य
बलक्षय
अन्न ववदाह
आहार का देर से पचना
शरीर मे भारीपन
अरूचच
कास
कणणक्षवेड
आंत्रक
ू जन
सदन
भोजन देर से पचना
अम्लोद्गार
प्रसेक
मुखवैरस्य
अरूचच
तृष्णा
क्लम
9. रूप :-
ग्रहणी िोग से पीडित िोगी अत्यन्त पतला, अश्रधक बाि तिा
कर्ी कर्ी बन्धा हुआ
ववष्टंर् क
े साि मल त्याग किता है
िोगी तयास, अरुश्रच, मुखवैिथय, तमक श्वास से ग्रथत हो र्ाता है
उसक
े हाि पैि शोियुक्त होते है अग्थि, संश्रधयो मे पीिा होती
है।
िोगी वमि कििे लगता है एवं ज्वि हो र्ाता है
लोहे एवं आम क
े समाि गन्ध युक्त र्तक्त,अ्ल िकाि लेता है।
11. अन्य र्ेद :-
स्वतंत्र :-
बबिा अर्तसाि क
े होिे वाली
परतंत्र :-
अर्तसाि क
े उपिांत अपथ्य सेवि से उत्पन्ि ग्रहणी
संग्रह ग्रहणी :-
अंत्रक
ू र्ि, आलथय, दुबयलता, अग्निमांद्य एवं कहट की वेदिा होिे क
े साि िोगी
तिल शीत तिा कर्ी घि, ग्थिनध, आम वपग्छछलता युक्त अत्यश्रधक मल को शब्द।
एवं मंद वेदिा क
े साि त्यागता है ।
इसका आक्रमण एक मास, पंद्रह हदि, दस हदि, क
े पश्चात ् या प्रर्तहदि र्ी हो सकता
है, इसका प्रकोप हदि मे होता है एवं िाबत्र को शांत हो र्ाता है।
यह कहठिता से र्ाििे योनय,दुग्श्चककत्थय एवं श्रचिकालीि थवरूप का िोग है ।
यह साम वायु से उत्पन्ि होता है एवं इसे संग्रह-ग्रहणी या संग्रहणी कहते है
12. घटीयंत्र ग्रहणी :-
लेटिे पि पाश्वय मे शूल तिा र्ल मे िूबते हुए घिे क
े समाि ध्वर्ि से युक्त
ग्रहणी िोग को घटीयंत्र ग्रहणी कहते है
उपद्रवः-
1. ज्वि
2. शूल
3. हहक्का
4. वमि
5. आध्माि
6. प्रलाप
7. तीव्र
8. अिोचक
9. श्वास
10. पाण्िु
13. साध्यासाध्यता :-
वार्तक,पैवत्तक,कफर् ग्रहणी सुखसाध्य है।
सग्न्िपार्तक ग्रहणी कृ छरसाध्य
घटीयंत्र ग्रहणी असाध्य है संग्रहणी ग्रहणी
दुग्श्चककत्थय है
14. सािांश :-
अततसार की तनवृवत्त क
े पश्चात ् उत्पन्न मन्दान्ग्न तथा उसक
े पश्चात ् भी
ममथ्या आहार बबहार का सेवन ग्रहणी की ववकृ तत का महत्वपूणण कारण होता
है।
इससे वातादद दोषों की ववकृ तत से गहणी रोग की उत्पवत्त बताई गई हैं।
ग्रहणी की ववकृ तत मे अन्ग्न (पाचक रसों) की गुणात्मक ववकृ तत एवं
मात्रात्मक ववकृ तत (पाचक रसों का अल्प स्रवण) ममलती हैं ।
न्जसमें आम की उत्पवत्त होती हैं। आम का आम ववष में पररवतणन होता हैं
तथा आम ववष से एवं धात्वान्ग्नमान्ध से साम धातुओं की उत्पवत्त होती हैं
ग्रहणी की चचककत्सा मे आम का पाचन करने वाली एवं अन्ग्न को दी्त
करने वाली औषचधयों का सेवन करवाया जाता हैं।
ग्रहणी में कभी बद्ध मल एवं कभी द्रव मल की प्रवृवत्त होती हैं।
अततसार क
े कारण द्रव मल की प्रवृवत्त होकर साम दोषों क
े तनकल जाने क
े
पश्चात ् बद्व मल की प्रवृवत्त होती हैं ।
यही क्रम ग्रहणी में चलता रहता है।
15. आधुर्िक मतािुसाि :-
गृहणी की तुलिा Malabsortion Syndrome से की र्ाती हैं।
इसमें तीि प्रकाि की ग्थिती महत्वपूणय रुप से शमलती है।
Defective Digestion
Defective Absorption
Defective Transfit
उपिोक्त तीिों कायय Small intestine क
े द्वािा ककये र्ाते
हैं। इस िोग में तीिों प्रकाि क
े कायय में
ववकृ र्त हो र्ाती हैं। आयुवेद मतािुसाि उपिोक्त तीिों कायय
ग्रहणी क
े द्वािा ककये र्ाते हैं। तिा इसमें।
ग्रहणी में ववकृ र्त उत्पन्ि हो र्ाती हैं।
16. सापेक्ष र्िदाि :-
गृहणी रोग अततसार प्रवादहका
1. चचरकालानुबन्धीव्याचध
प्राय: अततसार क
े
पश्चात् उत्पन्न होती है
2. कभी बद्ध तथा कभी
द्रव मल त्याग
3. मल का कभी-कभी
कफयुक्त होना
4. मल त्याग क
े पूवण ऐंठन
नहीं होती
1. शीघ्रकारी व्याचध
2. द्रव मल का अचधक
मात्रा में तनगणमन
3. मल का कभी-कभी
कफयुक्त होना
4. मल त्याग सरक्त तथा
मल त्याग क
े पूवण ऐंठन
नहीं होती
1. शीघ्रकारी व्याचध
2. मल की मात्रा कम
3. मल सदा कफयुक्त होना
4. मल त्याग क
े पूवण ऐंठन
होती