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pr<qU Xh ankI ivrh Ai^n my< GI kw kwm krqI hY[ goipXo< ko zwn
mwg~ ik bjwE pRym mwg~ ps<d Qw esilE उन्होंने उद्धव
पर कई वयंग्य कसे और इसी के साथ
भ्रमरगीत कक शुरुवात हुई।
 इस पद में उद्धव को ताना मरते हुए कहा गया है
कक उद्धव बहुत भग्यवान है। वह हमेशा श्री कृ ष्णा
के पास रहते हैं किर भी उनका मन प्रेम रूपी धागे
से नह ं बंधाता। गोपपयों ने उनकी तुलना उस
कमल के पत्ते से की है जिसके पानी के भीतर
रहने के बाविूद उस पर पानी की एक बूूँद नह
टिकती। उनकी तुलना उस तेल में डूबे हुए मिके
से की है जिसके ऊपर भी पानी नह ं टिकती।
गोपपयों ने अपनी तुलना गुड़ से चिपकी उस िींि
से की है जिसको ननकालना बहुत कटिन होता है।
 इस पद में यह बताया गया है कक गोपपयों की मन
की बात मन में ह रह गई है। गोपपयाूँ श्री कृ ष्णा
के पवयोग में नतल-नतल कर िल रह ं हैं| गोपपयाूँ
यह कहती हैं कक उद्धव के इस संदेश ने उनकी
पवरह अजग्न में घी का काम ककया है| गोपपयाूँ
आगे कहती हैं कक उनकी धैयय को धारण करने की
शजतत अब समाप्त हो िुकी है और इसी कारण
वह श्री कृ ष्णा की पवरह में बुर तरह िल रह हैं|
 इस पद में गोपपयों ने अपनी तुलना हररल पक्षी से
की है और उसकी लकड़ी की तुलना श्री कृ ष्ण से
की है| गोपपयाूँ भी उसी हररल पक्षी की तरह हैं
जिसने अपनी लकड़ी को ज़ोर से पकड़ रखा है|
गोपपयों ने हृदय में मन, विन और कमय से श्री
कृ ष्ण को अपना मान ललया है| गोपपयाूँ अब सोते-
िागते, स्वप्नावस्था में श्री कृ ष्ण का ह नाम
िपती हैं| उन्हें योग का संदेश ककसी कड़वी ककड़ी
सा प्रतीत होता है| गोपपयाूँ कहती हैं कक योग का
संदेश उन लोगों के ललए है जिनका मन िकर की
तरह भिकता रहता है| लेककन गोपपयों का मन तो
श्री कृ ष्ण पर जस्थर है|
 इस पद में गोपपयाूँ उद्धव को कहती हैं कक श्री कृ ष्‍ण
ने अब रािनीनत पढ़ ल है| श्री कृ ष्‍ण तो पहले से ह
बहुत ितुर थे और अब रािनीनत पढ़ कर वे और ितुर
हो गए| गोपपयाूँ आगे कहती हैं कक पहले लोग बहुत
भले थे िो परटहत के ललए भागे िले आते थे लेककन
अब ऐसा नह ं है| श्री कृ ष्‍ण िो ककसी के साथ अन्याय
नह ं होने देते वह खुद गोपपयों के साथ अन्याय कर
रहे हैं| गोपपयाूँ कहती हैं कक एक रािा का धमय यह
होना िाटहए कक वह अपनी प्रिा की रक्षा करें न कक
उन्हें सताए|
ऊ:- गोपपयाूँ उद्धव को भाग्यवान कहते हुए व्यंग्य
कसती है कक श्री कृ ष्ण के साननध्य में रहते हुए
भी वे श्री कृ ष्ण के प्रेम से सवयथा मुतत रहे। वे
कै से श्री कृ ष्ण के स्नेह व प्रेम के बंधन में अभी
तक नह ं बंधे ?श्री कृ ष्ण के प्रनत कै से उनके हृदय
में अनुराग उत्पन्न नह ं हुआ? अथायत ् श्री कृ ष्ण के
साथ कोई व्यजतत एक क्षण भी व्यतीत कर ले तो
वह कृ ष्णमय हो िाता है। परन्तु ये उद्धव तो
उनसे तननक भी प्रभापवत नह ं है प्रेम में डूबना तो
अलग बात है।
ऊ:- गोपपयों ने उद्धव के व्यवहार की तुलना
ननम्नललखखत उदाहरणों से की है –
(1)गोपपयों ने उद्धव के व्यवहार की तुलना कमल के पत्ते
से की है िो नद के िल में रहते हुए भी िल की
ऊपर सतह पर ह रहता है। अथायत् िल का प्रभाव उस
पर नह ं पड़ता। श्री कृ ष्ण का साननध्य पाकर भी वह
श्री कृ ष्ण के प्रभाव से मुतत हैं।
(2)वह िल के मध्य रखे तेल के गागर (मिके ) की भाूँनत
हैं, जिस पर िल की एक बूूँद भी टिक नह ं पाती।
उद्धव पर श्री कृ ष्ण का प्रेम अपना प्रभाव नह ं छोड़
पाया है, िो ज्ञाननयों की तरह व्यवहार कर रहे हैं।
ऊ:- गोपपयों ने ननम्नललखखत उदाहरणों के माध्यम
उद्धव को उलाहने टदए है:-
(1) कमल के पत्ते िो नद के िल में रहते हुए भी
िल के प्रभाव से मुतत रहता है।
(2) िल के मध्य रखी तेल की मिकी, जिस पर
पानी की एक बूूँद भी टिक पाती।
(3) कड़वी ककड़ी िो खा ल िाए तो गले से नीिे
नह ं उतरती।
(4) प्रेम रुपी नद में पाूँव डूबाकर भी उद्धव प्रभाव
रटहत हैं।
ऊ:- गोपपयाूँ इसी टदन के इंतज़ार में अपने िीवन की
एक-एक घड़ी को काि रह हैं कक श्री कृ ष्ण हमसे
लमलने का वादा करके गए हैं। वे इसी इंतिार में बैिी
हैं कक श्री कृ ष्ण उनके पवरह को समझेंगे, उनके प्रेम
को समझेंगे और उनके अतृप्त मन को अपने दशयन से
तृप्त करेंगे। परन्तु यहाूँ सब उल्िा होता है। श्री कृ ष्ण
तो द्वारका िाकर उन्हें भूल ह गए हैं। उन्हें न तो
उनकी पीड़ा का ज्ञान है और न ह उनके पवरह के दु:ख
का। बजल्क उद्धव को और उन्हें समझाने के ललए भेि
टदया है, िो उन्हें श्री कृ ष्ण के प्रेम को छोड़कर योग
साधना करने का भाषण दे रहा है। यह उनके दु:ख को
कम नह ं कर रहा अपपतु उनके हृदय में िल रह
पवरहाजग्न में घी का काम कर उसे और प्रज्वललत कर
रहा है।
ऊ:- गोपपयों ने अपने प्रेम को कभी ककसी के सम्मुख
प्रकि नह ं ककया था। वह शांत भाव से श्री कृ ष्ण के
लौिने की प्रतीक्षा कर रह थीं। कोई भी उनके दु:ख को
समझ नह ं पा रहा था। वह िुप्पी लगाए अपनी
मयायदाओं में ललपि हुई इस पवयोग को सहन कर रह
थीं कक वे श्री कृ ष्ण से प्रेम करती हैं। परन्तु इस
उद्धव के योग संदेश ने उनको उनकी मयायदा छोड़कर
बोलने पर मिबूर कर टदया है। अथायत् िो बात लसर्फय
वह िानती थीं आि सबको पता िल िाएगी।
ऊ:- कृ ष्‍ण के प्रनत अपने अनन्य प्रेम को ननम्नललखखत
उदाहरणों द्वारा व्यतत ककया है:-
(1) उन्होंने स्वयं की तुलना िींटियों से और श्री कृ ष्ण
की तुलना गुड़ से की है। उनके अनुसार श्री कृ ष्ण
उस गुड़ की भाूँनत हैं जिस पर िींटियाूँ चिपकी रहती
हैं।
(2) उन्होंने स्वयं को हाररल पक्षी व श्री कृ ष्ण को लकड़ी
की भाूँनत बताया है, जिस तरह हाररल पक्षी लकड़ी
को नह ं छोड़ता उसी तरह उन्होंने मन, क्रम, विन
से श्री कृ ष्ण की प्रेम रुपी लकड़ी को दृढ़तापूवयक
पकड़ ललया है।
(3) वह श्री कृ ष्ण के प्रेम में रात-टदन, सोते-िागते लसर्फय
श्री कृ ष्ण का नाम ह रिती रहती है।
ऊ:- गोपपयों के अनुसार योग की लशक्षा उन्ह ं लोगों
को देनी िाटहए जिनकी इजन्ियाूँ व मन उनके बस
में नह ं होते। जिस तरह से िक्री घूमती रहती है
उसी तरह उनका मन एक स्थान पर न रहकर
भिकता रहता है। परन्तु गोपपयों को योग की
आवश्यकता है ह नह ं तयोंकक वह अपने मन व
इजन्ियों को श्री कृ ष्ण के प्रेम के रस में डूबो िुकी
हैं। वे इन सबको श्री कृ ष्ण में एकाग्र कर िुकी हैं।
इसललए उनको इस योग की लशक्षा की आवश्यकता
नह ं है।
ऊ:- साधना के ज्ञान को ननरथयक बताया गया है। यह
ज्ञान गोपपयों के अनुसार अव्यवाहररक और अनुपयुतत
है। उनके अनुसार यह ज्ञान उनके ललए कड़वी ककड़ी
के समान है जिसे ननगलना बड़ा ह मुजश्कल है।
सूरदास िी गोपपयों के माध्यम से आगे कहते हैं कक ये
एक बीमार है। वो भी ऐसा रोग जिसके बारे में तो
उन्होंने पहले कभी न सुना है और न देखा है। इसललए
उन्हें इस ज्ञान की आवश्यकता नह ं है। उन्हें योग का
आश्रय तभी लेना पड़ेगा िब उनका चित्त एकाग्र नह ं
होगा। परन्तु कृ ष्णमय होकर यह योग लशक्षा तो उनके
ललए अनुपयोगी है। उनके अनुसार कृ ष्ण के प्रनत एकाग्र
भाव से भजतत करने वाले को योग की ज़रूरत नह ं
होती।
ऊ:- गोपपयों के अनुसार रािा का धमय उसकी प्रिा की
हर तरह से रक्षा करना होता है तथा नीनत से रािधमय
का पालन करना होता। एक रािा तभी अच्छा कहलाता
है िब वह अनीनत का साथ न देकर नीनत का साथ
दे।
ऊ:- उनके अनुसार श्री कृ ष्ण द्वारका िाकर
रािनीनत के पवद्वान हो गए हैं। िो उनके साथ
रािनीनत का खेल खेल रहे हैं। उनके अनुसार श्री
कृ ष्ण पहले से ह ितुर थे अब तो ग्रंथो को पढ़कर
औऱ भी ितुर बन गए हैं। द्वारका िाकर तो
उनका मन बहुत बढ़ गया है, जिसके कारण
उनहोंने गोपपयों से लमलने के स्थान पर योग की
लशक्षा देने के ललए उद्धव को भेि टदया है। श्री
कृ ष्ण के इस कदम से उनका हृदय बहुत आहत
हुआ है अब वह अपने को श्री कृ ष्ण के अनुराग से
वापस लेना िाहती हैं।
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  • 6. en pdo< my< Xh bqwXw gXw ik ‰I k÷à&w jI Ab mQurw jwny ky bwd ávX< n lOtkr ad`Dv ky d`vwrw goipXo< ky ilE Xog kw s<dyS Byjw[ ess<dySky d`vwrw ad`Dv goipXo< koSw<q krnw cwhqy hY< pr<qU Xh ankI ivrh Ai^n my< GI kw kwm krqI hY[ goipXo< ko zwn mwg~ ik bjwE pRym mwg~ ps<d Qw esilE उन्होंने उद्धव पर कई वयंग्य कसे और इसी के साथ भ्रमरगीत कक शुरुवात हुई।
  • 7.  इस पद में उद्धव को ताना मरते हुए कहा गया है कक उद्धव बहुत भग्यवान है। वह हमेशा श्री कृ ष्णा के पास रहते हैं किर भी उनका मन प्रेम रूपी धागे से नह ं बंधाता। गोपपयों ने उनकी तुलना उस कमल के पत्ते से की है जिसके पानी के भीतर रहने के बाविूद उस पर पानी की एक बूूँद नह टिकती। उनकी तुलना उस तेल में डूबे हुए मिके से की है जिसके ऊपर भी पानी नह ं टिकती। गोपपयों ने अपनी तुलना गुड़ से चिपकी उस िींि से की है जिसको ननकालना बहुत कटिन होता है।
  • 8.  इस पद में यह बताया गया है कक गोपपयों की मन की बात मन में ह रह गई है। गोपपयाूँ श्री कृ ष्णा के पवयोग में नतल-नतल कर िल रह ं हैं| गोपपयाूँ यह कहती हैं कक उद्धव के इस संदेश ने उनकी पवरह अजग्न में घी का काम ककया है| गोपपयाूँ आगे कहती हैं कक उनकी धैयय को धारण करने की शजतत अब समाप्त हो िुकी है और इसी कारण वह श्री कृ ष्णा की पवरह में बुर तरह िल रह हैं|
  • 9.  इस पद में गोपपयों ने अपनी तुलना हररल पक्षी से की है और उसकी लकड़ी की तुलना श्री कृ ष्ण से की है| गोपपयाूँ भी उसी हररल पक्षी की तरह हैं जिसने अपनी लकड़ी को ज़ोर से पकड़ रखा है| गोपपयों ने हृदय में मन, विन और कमय से श्री कृ ष्ण को अपना मान ललया है| गोपपयाूँ अब सोते- िागते, स्वप्नावस्था में श्री कृ ष्ण का ह नाम िपती हैं| उन्हें योग का संदेश ककसी कड़वी ककड़ी सा प्रतीत होता है| गोपपयाूँ कहती हैं कक योग का संदेश उन लोगों के ललए है जिनका मन िकर की तरह भिकता रहता है| लेककन गोपपयों का मन तो श्री कृ ष्ण पर जस्थर है|
  • 10.  इस पद में गोपपयाूँ उद्धव को कहती हैं कक श्री कृ ष्‍ण ने अब रािनीनत पढ़ ल है| श्री कृ ष्‍ण तो पहले से ह बहुत ितुर थे और अब रािनीनत पढ़ कर वे और ितुर हो गए| गोपपयाूँ आगे कहती हैं कक पहले लोग बहुत भले थे िो परटहत के ललए भागे िले आते थे लेककन अब ऐसा नह ं है| श्री कृ ष्‍ण िो ककसी के साथ अन्याय नह ं होने देते वह खुद गोपपयों के साथ अन्याय कर रहे हैं| गोपपयाूँ कहती हैं कक एक रािा का धमय यह होना िाटहए कक वह अपनी प्रिा की रक्षा करें न कक उन्हें सताए|
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  • 12. ऊ:- गोपपयाूँ उद्धव को भाग्यवान कहते हुए व्यंग्य कसती है कक श्री कृ ष्ण के साननध्य में रहते हुए भी वे श्री कृ ष्ण के प्रेम से सवयथा मुतत रहे। वे कै से श्री कृ ष्ण के स्नेह व प्रेम के बंधन में अभी तक नह ं बंधे ?श्री कृ ष्ण के प्रनत कै से उनके हृदय में अनुराग उत्पन्न नह ं हुआ? अथायत ् श्री कृ ष्ण के साथ कोई व्यजतत एक क्षण भी व्यतीत कर ले तो वह कृ ष्णमय हो िाता है। परन्तु ये उद्धव तो उनसे तननक भी प्रभापवत नह ं है प्रेम में डूबना तो अलग बात है।
  • 13. ऊ:- गोपपयों ने उद्धव के व्यवहार की तुलना ननम्नललखखत उदाहरणों से की है – (1)गोपपयों ने उद्धव के व्यवहार की तुलना कमल के पत्ते से की है िो नद के िल में रहते हुए भी िल की ऊपर सतह पर ह रहता है। अथायत् िल का प्रभाव उस पर नह ं पड़ता। श्री कृ ष्ण का साननध्य पाकर भी वह श्री कृ ष्ण के प्रभाव से मुतत हैं। (2)वह िल के मध्य रखे तेल के गागर (मिके ) की भाूँनत हैं, जिस पर िल की एक बूूँद भी टिक नह ं पाती। उद्धव पर श्री कृ ष्ण का प्रेम अपना प्रभाव नह ं छोड़ पाया है, िो ज्ञाननयों की तरह व्यवहार कर रहे हैं।
  • 14. ऊ:- गोपपयों ने ननम्नललखखत उदाहरणों के माध्यम उद्धव को उलाहने टदए है:- (1) कमल के पत्ते िो नद के िल में रहते हुए भी िल के प्रभाव से मुतत रहता है। (2) िल के मध्य रखी तेल की मिकी, जिस पर पानी की एक बूूँद भी टिक पाती। (3) कड़वी ककड़ी िो खा ल िाए तो गले से नीिे नह ं उतरती। (4) प्रेम रुपी नद में पाूँव डूबाकर भी उद्धव प्रभाव रटहत हैं।
  • 15. ऊ:- गोपपयाूँ इसी टदन के इंतज़ार में अपने िीवन की एक-एक घड़ी को काि रह हैं कक श्री कृ ष्ण हमसे लमलने का वादा करके गए हैं। वे इसी इंतिार में बैिी हैं कक श्री कृ ष्ण उनके पवरह को समझेंगे, उनके प्रेम को समझेंगे और उनके अतृप्त मन को अपने दशयन से तृप्त करेंगे। परन्तु यहाूँ सब उल्िा होता है। श्री कृ ष्ण तो द्वारका िाकर उन्हें भूल ह गए हैं। उन्हें न तो उनकी पीड़ा का ज्ञान है और न ह उनके पवरह के दु:ख का। बजल्क उद्धव को और उन्हें समझाने के ललए भेि टदया है, िो उन्हें श्री कृ ष्ण के प्रेम को छोड़कर योग साधना करने का भाषण दे रहा है। यह उनके दु:ख को कम नह ं कर रहा अपपतु उनके हृदय में िल रह पवरहाजग्न में घी का काम कर उसे और प्रज्वललत कर रहा है।
  • 16. ऊ:- गोपपयों ने अपने प्रेम को कभी ककसी के सम्मुख प्रकि नह ं ककया था। वह शांत भाव से श्री कृ ष्ण के लौिने की प्रतीक्षा कर रह थीं। कोई भी उनके दु:ख को समझ नह ं पा रहा था। वह िुप्पी लगाए अपनी मयायदाओं में ललपि हुई इस पवयोग को सहन कर रह थीं कक वे श्री कृ ष्ण से प्रेम करती हैं। परन्तु इस उद्धव के योग संदेश ने उनको उनकी मयायदा छोड़कर बोलने पर मिबूर कर टदया है। अथायत् िो बात लसर्फय वह िानती थीं आि सबको पता िल िाएगी।
  • 17. ऊ:- कृ ष्‍ण के प्रनत अपने अनन्य प्रेम को ननम्नललखखत उदाहरणों द्वारा व्यतत ककया है:- (1) उन्होंने स्वयं की तुलना िींटियों से और श्री कृ ष्ण की तुलना गुड़ से की है। उनके अनुसार श्री कृ ष्ण उस गुड़ की भाूँनत हैं जिस पर िींटियाूँ चिपकी रहती हैं। (2) उन्होंने स्वयं को हाररल पक्षी व श्री कृ ष्ण को लकड़ी की भाूँनत बताया है, जिस तरह हाररल पक्षी लकड़ी को नह ं छोड़ता उसी तरह उन्होंने मन, क्रम, विन से श्री कृ ष्ण की प्रेम रुपी लकड़ी को दृढ़तापूवयक पकड़ ललया है। (3) वह श्री कृ ष्ण के प्रेम में रात-टदन, सोते-िागते लसर्फय श्री कृ ष्ण का नाम ह रिती रहती है।
  • 18. ऊ:- गोपपयों के अनुसार योग की लशक्षा उन्ह ं लोगों को देनी िाटहए जिनकी इजन्ियाूँ व मन उनके बस में नह ं होते। जिस तरह से िक्री घूमती रहती है उसी तरह उनका मन एक स्थान पर न रहकर भिकता रहता है। परन्तु गोपपयों को योग की आवश्यकता है ह नह ं तयोंकक वह अपने मन व इजन्ियों को श्री कृ ष्ण के प्रेम के रस में डूबो िुकी हैं। वे इन सबको श्री कृ ष्ण में एकाग्र कर िुकी हैं। इसललए उनको इस योग की लशक्षा की आवश्यकता नह ं है।
  • 19. ऊ:- साधना के ज्ञान को ननरथयक बताया गया है। यह ज्ञान गोपपयों के अनुसार अव्यवाहररक और अनुपयुतत है। उनके अनुसार यह ज्ञान उनके ललए कड़वी ककड़ी के समान है जिसे ननगलना बड़ा ह मुजश्कल है। सूरदास िी गोपपयों के माध्यम से आगे कहते हैं कक ये एक बीमार है। वो भी ऐसा रोग जिसके बारे में तो उन्होंने पहले कभी न सुना है और न देखा है। इसललए उन्हें इस ज्ञान की आवश्यकता नह ं है। उन्हें योग का आश्रय तभी लेना पड़ेगा िब उनका चित्त एकाग्र नह ं होगा। परन्तु कृ ष्णमय होकर यह योग लशक्षा तो उनके ललए अनुपयोगी है। उनके अनुसार कृ ष्ण के प्रनत एकाग्र भाव से भजतत करने वाले को योग की ज़रूरत नह ं होती।
  • 20. ऊ:- गोपपयों के अनुसार रािा का धमय उसकी प्रिा की हर तरह से रक्षा करना होता है तथा नीनत से रािधमय का पालन करना होता। एक रािा तभी अच्छा कहलाता है िब वह अनीनत का साथ न देकर नीनत का साथ दे।
  • 21. ऊ:- उनके अनुसार श्री कृ ष्ण द्वारका िाकर रािनीनत के पवद्वान हो गए हैं। िो उनके साथ रािनीनत का खेल खेल रहे हैं। उनके अनुसार श्री कृ ष्ण पहले से ह ितुर थे अब तो ग्रंथो को पढ़कर औऱ भी ितुर बन गए हैं। द्वारका िाकर तो उनका मन बहुत बढ़ गया है, जिसके कारण उनहोंने गोपपयों से लमलने के स्थान पर योग की लशक्षा देने के ललए उद्धव को भेि टदया है। श्री कृ ष्ण के इस कदम से उनका हृदय बहुत आहत हुआ है अब वह अपने को श्री कृ ष्ण के अनुराग से वापस लेना िाहती हैं।