3. 1. अश्रद्धा अश्रद्धायां मुखप्रववष्टस्याहारस्याभ्यवहरणं भवत्येव परं त्ववनच्छा।
(चक्रपावण)अन्नद्वेष अथवा अत्र का वतरस्कार। व्यप्ति को क्षुधा हो सकती है परन्तु
विर भी अन्न सेवन की इच्छा नहीं होती है
2. अरुवच अरुचौ तु मुखप्रववष्टं नाभ्यवहरतीवत भेदः। (चक्रपावण))रोगी को क्षुधा होती है
व अन्न क
े प्रवत प्रीवत भी होती है परन्तु भोजन करने पर रुवच का बांध नहीं होता है।
पररणामस्वरुप वह भोजन करे तो छवदद आवद ववकार हो सकते हैं।
3. आस्यवैरस्य उवचतादास्यादन्यथात्वम् । मुख का स्वभाववक रस होता है उससे वभन्न
होना हीआस्यवैरस्य कहलाता है। किदोष क
े कारण भोजन में मधुर रस का बोध
होता है। वपत्त से दू वषत होने पर अम्ल रस का बोध होता है।
4. 4. अरसज्ञता रसाप्रवतपवत्तः रस की प्रतीवत नहीं होना। अथादत भोजन करने पर वकसी भी रस का
बोधनहीं होता है।
5. हासहास हृदयादीपदव्यथः पटुवम्बु वनगदमः । (योगरत्नाकर) लालास्राव अवधक होना। आमाश्य में
क्लेदक किकी वृप्तद्ध होने पर वायु प्रक
ु वपत होकर हृदय को व्यवथतकरती हुयी लालास्स्स्राव को
अवधक उत्पन्न करती है।
6. गौरवं आर्द्द चमादवनद्धं वा यो गात्रमवभमन्यते। तथा गुरु वशरोऽत्यथं गौरवं तवद्ववनवददशेत्(सु.शा.
4/54)त्वचा गीले चमद से लपेटी हुयी सी प्रतीत होती है। वसर में अत्यवधक गुरुता होती है।
7. तन्द्रा तमोवातकिात्तन्द्रा .1 (सु.शा. 4/55) इप्तन्द्रयाथेष्वसम्प्राप्तिगौरवं जृम्भणं क्लमः ।
वनर्द्ाऽऽतस्येव यस्येहा तस्य तन्द्रां वववनवददशेत् ।।(सु.शा. 4/48)इप्तन्द्रयों द्वारा इप्तन्द्रयाथद (रुप, रस,
गन्ध, स्पशद और शब्द) का ज्ञान नहीं होता है। शरीर में गुरुता जृम्भा व थकावट होना व व्यप्ति का
वनर्द्ा वेग से पीव़ित वदखाई देना।
5. 8. अंगमदद शरीर टू टना। व्यान वायु की दृवष्ट क
े कारण शरीर में ऐंठनवत् पीडा होती है।
9. ज्वर देहेप्तन्द्रयमनस्ताप करः (च. वन. 1/35)यह रस प्रदोषज ववकारों में से एक महत्त्वपूणद ववकार
हैं क्ोंवक रस धातु की दृवष्ट होते ही रस का अनुगत करने वाली अवग्न सम्पूणद शरीर में व्याि होकर
शरीर, मन व इप्तन्द्रयो में संताप उत्पन्न करती है। क
े प्राधान्य से उत्पन्न हो तो
10. तम यह वात नानात्मज ववकार भी है अतः रस प्रदोषज ववकार यवद बात तम अथादत आंखों क
े
आगे अंधेरा आना लक्षण भी वदखाई देता है।
11. पाण्डु रस दुष्ट होने से उत्तर धातु रि की पुवष्ट सम्यक
् रुप से नहीं होने क
े कारण पाण्डु रोग
उत्पन्न होता है।
12. स्त्रोतोवरोध- स्रोतोरोध यह रस प्रदोषज ववकार होने क
े साथ साथ दोषावद की सामावस्स्था का भी
लक्षण है
6. 13. क्लैव्य पुंस्त्वनाश अथवा शुक्र का वनष्फलत्व होना। रस प्रदोषज ववकार क
े
अप्तन्तम पररणामस्वरुपशुक्र धातु का नाश होना स्वभाववक ही है। रस को पोषण न
वमलने पर अप्तन्तम शुक्र धातु को पोषण नहीं वमलता है।
14. साद - अंगसादः अंगवैकल्यं (अ. हृ. सू. 4/10 अरुणदत्त) अंग ग्लावन अंगों में
वशवथलता होना अथवा शरीर में अनुत्साह होना। रस का मुख्य कमद तुवष्ट अथादत
प्रसन्नता प्रदान करनाहै अतः रस दुवष्ट क
े कारण शरीर में उत्साह हावन होना
स्वभाववक है।
15. क
ृ शाङ्गता अन्नद्वेष, अरुवच, अवग्नमांद्य आवद कारणों से रस का क्षय होने क
े
कारण रि क
े समानइतर धातुओं का भी क्षय होकर क
ृ शता उत्पन्न होगी।
7. 16. अवग्ननाश शान्तेव ऽग्नौ वियते ....... .। अवग्न नाश होते ही व्यप्ति की मृत्यु हो जायेगी अतः
रसप्रदोषज ववकार उग्र रुप धारण कर मृत्यु अथवा आयु का क्षय करते हैं।
17. अकाल वलय व अकाल पावलत्य यह आयु क्षय क
े द्योतक लक्षण है क्ोंवक युवावस्स्था में ही
रस धातु दुष्ट होने क
े कारण त्वचा पर वृद्ध व्यप्तियों की तरह झुररदया प़िना व अकाल बालों
का पकना आवद लक्षण वदखाई देते है।
18 हृदय रोग दू षवयत्वा रसं दोषा ववगुणा हृदयं गता। (सु. उ. 43/4)रसवहस्रोतस का मूल हृदय
है वातावद दोष रस धातु को दू वषत कर हर्द्ोग उत्पन्न करते हैं।
19 अववपाक अवग्नमांद्य क
े कारण भोजन का पाक नहीं होता है वजससे अजीणद क
े लक्षण उत्पन्न
होते है पररणामस्वरूप भोजन को वजस रस रूप में पररणत होना चावहये, उस रूप में पररणत
न होकर दोष भेद से वववभन्न ववकार उत्पन्न करता है।
9. 1. क
ु ष्ठ क
ु ष्ठ वचरवक्रयैः प्तस्स्थरैरप्रबलरिवपत्तैदोषैजदन्यते क
ु ष्ठ वचर वक्रया वाले, प्तस्स्थर एवं वनबदल
रिवपत्त वाले दोषों से होता है। तथा क
ु ष्ठ में तीनो दोष व चारों दृष्य त्वक
् , रि, मांस,
लवसका एक साथ दू वषत होते हैं।
2. ववसपद ववसपदस्त्ववचरववसपदणशीलैः प्रबलरिवपत्तैः ववसपद अवचरकारी ववसपदणशील प्रबल
रिवपत्त वाले दोषों से होता है तथा ववसपद में तीनों दोष व चारों दू ष्य त्वक
् , रि, मांस,
लवसका एक साथ दू वषत नहीं होते हैं।
3. वपडका अपक्ाः वपडकाः। यह ववकार त्वचा प्तस्स्थत व्रणों क
े समान भगन्दर की पूवाद वस्स्था है
व ददु व पामा का लक्षण है।
4. रिवपत्त- वपत्त रि क
े साथ संयुि होकर व उसे दू वषत करता है। संसगद क
े कारण वपत्त,
रि क
े समानगन्ध व वणद ले लेता है वजससे वपत्त दू वषत रि का स्राव होने लगता है इस रोग
को रिवपत्त कहा जाता है।
10. 5. असृग्दर- क
ु वपतोऽवनलः रि प्रमाणमुत्क्रम्य गभादश्यगताः वसराः । रजोवहाः समावश्रत्य
रिमादाय तव्रजः। (च. वच. 30/208) रज का स्वभाववक मात्रा से बढ़ना हीअसृग्दर कहलाता है।
6. गुद पाक- गुद पाक क
े समकक्ष रोग अवहपूतना होता है यह किज रि की दृवष्ट से उत्पन्न
होता है किदोष क
े कारण कण्ड
ू होने से पीवडका और स्राव उत्पन्न हो जाते है तथा गुदा क
े चारों
तरिव्रण उत्पन्न हो जाते हैं।
7. मेदपाक यह वपत्त नानात्मज ववकार है वजसमें वपत्त, रि क
े साथ दुष्ट होकर रि वणद की
स्त्राव युि वपडका उत्पन्न करता है।
8. मुखपाक यह भी वपत्त नानात्मज ववकार ही है। वपत्त रि क
े साथ दू वषत होकर मुख में छाले
उत्पन्नकरती हे
11. 9. प्शोथ में वृद्ध हुये कि वपत्त व रि, बात क
े मागद को अवरोवधत करदेतें हैं, वजससे वात उन्मागद में
जाकर उत्सेध युि लक्षण वाला शोथ उत्पन्न करता है।
10. रिगुल्मव गभादशयगत प्रक
ु वपत वात रि को अवरोवधत कर पी़िा और दाह से युि गुल्मव को
उत्पन्न करता है इसक
े लक्षण पैवत्तक गुल्मव क
े समान होते हैं।
11. ववर्द्वध दुष्टरिवतमात्रत्वात् स वै शीघ्रं ववदह्यते ततः शीघ्रववदावहत्वावद्वववर्द्धीत्यवभवधयते ।।(च. सू.
17/95)दुष्ट रि की अवधकता होने से वह शीघ्र ववदाहयुि हो जाता है।
12. न्यच्छ- वपत्त, रि व वात की दृवष्ट से शरीर में बढ़े या छोटे, श्याव या क
ृ ष्ण वणद क
े पी़िारवहत
मण्डलोंको न्यच्छ कहते है। इसे लांच्छन भी कहा जाता है।
13. व्यंग न्यच्छ व्यंग व नीवलका तीनो एक ही रोग क
े वणद और स्स्थानभेद से वववभन्न नाम है। वायु
वपत्त क
े साथ मुख पर आकर एकाएक वहां पी़िा रवहत, छोटा और श्यामवणद का मण्डल बना देता है
उसे व्यंग कहते हैं।
12. 14. नीवलका मुख क
े अवतररि शरीर क
े अन्य भाग में होने वाली को व्यंग नीवलका कहते हैं।
15. वतलकालक वपत्त रि त्वचा में जाकर सूख जाते है वजससे वतलकालक उत्पन्न होता है।
16. वपप्लु- वपप्लु भी वतलकालक क
े समान ही उत्पन्न होता है।
17. इन्द्रलुि- रोमक
ू पों में रहने वाला भ्राजक वपत्त, वायु से वमलकर रोमों को वगरा देता है।
तत्पश्चात् रि सवहत किरोमक
ू पों को अवरुद्ध कर देता है। वजससे इन्द्रलुि रोग उत्पन्न होता है।
18. कामला पाण्डु रोगी क
े द्वारा वपत्त वधदक पदाथों क
े अवधक सेवन करने से वपत्त और अवधक
दू वषत हो जाता है यह वपत्त, रि व मांस को अत्यवधक दू वषत कर कामला रोग की उत्पन्न करता
है।
19. पामा- स्फोट व तीव्र दाह युि पामा क्षुर्द् क
ु ष्ठ है वजसमें क
ु ष्ठ क
े समान सातों दृष्य दुष्ट होते हैं
परन्तुगम्भीर धातु में प्तस्स्थत नहीं होते हैं।
13. 20. चमंदल - रि वणद वाला, शूल, कण्डु व स्फोट से युि क्षुर्द्क
ु ष्ठ चमददल कहलाता है।
21. कोठ- क्षवणकोत्पाद ववनाश: कोठ इवत वनगद्यते । वमन क
े अयोग व वमथ्यायोग क
े कारण रि
प्रक
ु वपत होकर कण्डु युि लाल वणद क
े चकत्ते उत्पन्न करता है वजसे कोठ कहा जाता है।
22. वित्र वात, वपत्त, कि तीनों दोष रि, मांस, मेद में आवश्रत होकर वित्र रोग उत्पन्न करते
23. वातरि वायु वववृद्धो वृद्धेन रिेनावररतः पवथ । क
ृ त्स्नं संदू षयेर्द्िं तज्ज्ञेयं वातशोवणतं ।हैं।(च.
वच. 29/11) वायु व रि दोनो दू वषत होकर वातरि को उत्पन्न करता है।
24. रिमण्डल- वपत्त रि को दू वषत कर त्वचा पर चकत्ते उत्पन्न करते हैं।
14. 25. मशकवात दोष रि क
े साथ दू वषत होकर वेदना रवहत प्तस्स्थर उ़िद की दाल क
े
समान उात वचन्ह उत्पन्न करता है। उसे मशक कहा जाता है।
26. दर्द्ु किवपत्त दोष प्रक
ु वपत होकर कण्डु युि लाल वणद की पीवडकाओं से युि
मण्डल उत्पन्न करते है वजसे दर्द्ु कहा जाता है।
27. अशं रि प्रदोषज ववकार क
े अन्तगदत ववणदत अशद से तात्पयद रिाशद से ही है। रि
व वपत्त उल्बणहोकर रि का स्राव करने वाले अशद उत्पन्न करते हैं।
28. अबुदद दोष मूप्तच्छद त होकर मांस व रि को दू वषत कर गोल, प्तस्स्थर, मन्दरुजा वाले,
अवधक गहरे, देर से बढ़ने वाले और न पकने वाले मांसवपण्ड क
े समान उात शोध को
उत्पन्न कर देते है। वजसे अबुदद कहते हैं।
16. 1. अवधमास मांस क
े ऊपर मांस क
े अंक
ु र वनकलना जैसे व्रण का रोहण होते हुये धात्यांश कभी त्वचा
क
े पृष्ठ से ऊपर वनकल आता है और तब उसका लेखन करना प़िता है। दन्तमांसगत रोग ववशेष
वजसमें हनुसप्तन्ध क
े पास हनु क
े अप्तन्तम दंत में महान् शोध होता है तथा उसमें तीव्र पी़िा और
लालास्राव होता है। यह किजन्य अवधमास रोग है।
2. अबुदद - शरीर क
े वकसी भी प्रदेश में वातावद दोष मांस को दू वषत करक
े गौर, प्तस्स्थर, अल्प पी़िा
युि,ब़ि, गम्भीर धातुओं में ि
ै ला हुआ कभी भी नहीं पकने वाला और मांस क
े उपचय से युि उत्पन्न
करते है वजसे शोिको अबुदद कहा जाता है।
4. गलशालूक अथवा कण्ठशालूक- कोल की गुठली क
े स्वरुप की गले में किक
े कारण उत्पन्न हुयी
तथा कण्टक अथवा शूक क
े समान, खर, प्तस्स्थर ग्रप्ति को कण्ठशालूक कहते हैं।
5. गलशुप्तण्डका क
ु वपत हुआ कि काकलक प्रदेश (तालु प्रदेश) क
े मांस में अपना स्स्थान बनाता है
शीघ्र ही वहााँ शोथ उत्पन्न कर देता है वजसे गलशुप्तण्डका कहते है।
17. 6. पूवतमांस - वपत्त प्रक
ु वपत होकर मांस को स़िा देता है व दुगदन्ध उत्पन्न करता है। इसे
पूवतमांस कहते हैं।
7. अलजी वपत्त दू वषत होकर मांसल अवकाशों में ममद स्स्थानों में व सप्तन्धयों में जाकर अवग्न में
जलने क
े समान ववदाह वाली अलजी नामक प्रमेह पीवडका उत्पन्न करता है।
8. गण्डमाला हन्वप्तस्स्थ क
े नीचे तथा छाती पर माला क
े समान होने वाली ग्रप्तियों को
गण्डमाला कहाजाता है।
9. उपवजप्तव्हका क
ु वपत हुआ किवजव्हा क
े मूल भाग में अपना स्स्थान बनाकर शीघ्र शोथ
उत्पन्न करता-है वजसे उपवजव्हा कहा जाता है।
10. अशद अशद को मांसांक
ु र संज्ञा भी दी गयीहै।
18. 11. अवधवजव्हा रि वमवश्रत किकी दृवष्ट क
े कारण वजव्हामूल क
े नीचे क
े मांस को
दू वषत कर अवधवजव्हा उत्पन्न करता है।
12. उपक
ु श वपत्त व रि दू वषत होकर दन्तमूलगत मांस में दाह तथा पाक उत्पन्न
करते है व दांत को ढीला कर देते हैं। इसे उपक
ु श कहते है।
13. मांससंघात मांस की प्रादेवशक वृप्तद्ध होना मांससंघात कहलाता है। तथा इसी
नाम का तालुगत रोगववशेष है।
14. ओष्ठप्रकोप - पृथक
् तथा सवन्नपावतक दोष रि, मांस, मेद, और अवभघात
कारणों से हुये क
ु ल आठओष्ठ रोगों को ओष्ठप्रकोप नाम वदया गया है।
20. 1. अष्ट वनप्तन्दत व्यावध अष्टौवनप्तन्दतीय अध्याय में ववणदत मेद आवधक् से होने
वाले दोषों को चरक नेववणदत वकया है जो वक इस प्रकार हैं।
1. आयुषोास आयु अल्प होना
2. जवोपरोध वकसी भी कायद में गवत न्यून होना।
3. क
ृ च्छ
र व्यवायता- मैथुन में कष्ट होना।
4. दौबदल्य धातुओं में ववषमता उत्पन्न होने से दौबदल्य व कमद में अनुत्साह।
5. दौगदन्ध्यं मेदस्वी पुरुष में स्वेदावधक् होने से दौगंन्ध्य उत्पन्न होता है।
6. स्वेदाबाध पसीने से अवधक कष्ट होना।
7. अवतक्षुधा अवधक मात्रा में भूख का लगना।
8. अवतवपपासा अवधक मात्रा में प्यास का लगना।
21. 2. प्रमेह पूवदरुप -क
े शों की जवटलता, मुख में मधुरता होना, हाथ पैर में शून्यता और
दाह मुखतालु और कण्ठ का सूखना, प्यास, आलस्य, शरीर में मलों की अवधकता,
शरीर क
े वछर्द्ों में मल का अवधक वलि होना, सारे अंगों में दाह व शून्यता, शरीर
पर और मूत्र पर चीवटयों का बैठना आवद।
3. ग्रप्ति - मेदोज ग्रप्ति शरीर की वृप्तद्ध क
े साथ ब़िती है तथा क्षय क
े साथ घटती है
एवम् स्पशद में विग्ध होती है।
4. वृप्तद्ध वातावद दोष प्रक
ु वपत होकर िल (वृषण) तथा उसक
े कोष में जाने वाली
धमनी में जाकर िल तथा कोष की वृप्तद्ध करता है उसे वृप्तद्ध कहते है।
5. गलगण्ड- पूवद वणदन वकया गया है।
22. 7. अबुदद - अबुदद क
े छः भेद बताये गये है।
8. मेदोज औष्ठ मेदोज औष्ठ प्रकोप में स्फवटक क
े समान स्राव बहता है। तथा औष्ठ गुरु हो जाते हैं।
9. मधुमेह- वात क
े कारण प्रमेह क
े दस दृष्य दू वषत होकर कषाय, मधुर, पाण्डु रुक्ष मूत्र त्याग करातें हैं।
10. अवतस्स्थौल्य स्त्रोतसों में मेद का संचय होने से वहां प्तस्स्थत वायु कोष्ठ में ववशेष रुप से संवचत होकर अवग्न
को प्रदीि करती हैं वजससे आहार का शीघ्र पाचन हो जाता है व मनुष्य आहार को अवधक मात्रा में व
अवधकबार खाने की इच्छा करता है। पररणामस्वरुप स्स्थौल्यता उत्पन्न होती है।
11. अवतस्वेद स्वेद मेद धातु का मल होता है इसवलए वजस व्यप्ति में मेदो धातु दुवष्ट वमलती है
उसमेंस्वेदावधक् का वमलना स्वभाववक है।
24. 1. अध्यप्तस्स्थ- अवधक अप्तस्स्थ होना अथादत वकसी अप्तस्स्थ क
े एक देश की अवधक वृप्तद्ध होना है।
2. अवधदन्त सामान्य से अवधक दन्त का होना।
3. अप्तस्स्थभेद - अल्पमात्र कारण से अप्तस्स्थयों क
े टू ट जाने का स्वभाव अथवा अप्तस्स्थयों में टू टने क
े
समानवेदना होना।
4. अप्तस्स्थशूल अप्तस्स्थ में तीव्र वेदना अप्तस्स्थ में ववकार उत्पन्न होने से, कभी अप्तस्स्थधरा कला दोषाक्रान्त
होने से तथा कदावचत् अप्तस्स्थ वववरान्तगदत मज्जा धातु रुग्ण होने से भी अप्तस्स्थयों में शूल होता है।
5. दन्त वववणदता - दांतो का सामान्य वणद पररववतदत होकर पीला होना ।
6. क
े शलोम नख श्मश्रु दोष अथवा क
ु नख-क
े श श्मश्रु, लोम तथा नख अप्तस्स्थ क
े मल माने गये हैं।
अतः अप्तस्स्थयों क
े दोषाक्रान्त होने से उसक
े मलों में भी ववकार उत्पन्न होते हैं जैसे बालों का वगरना,
दन्त का असमयवगरना आवद।
26. 1.पवद रुक पवद पर स्स्थूल मूल वाली अरुवषका उत्पन्न होने से पवो पर वेदना होती है।
आचायद सुश्रुत ने पवद रुक क
े स्स्थान पर पवद स्स्थूल मूल कहा है वजसका तात्पयद पवो पर
ववशाल मूल वाले व्रण उत्पन्न हो जाते हैं।
2. भ्रम मानवसक दोष रज, वपत व बात को दू वषत कर भ्रम उत्पन्न करता है
3. मूच्छाद चैतन्य का नाश मानवसक दोष तम वपत्त क
े साथ दू वषत होकर रिवाही
रसवाही व संज्ञावाही स्त्रोतसों को अवरुद्ध कर मूच्छाद उत्पन्न करते है।
4. तमदशदन आंखों क
े आगे अंधेरी छा जाना।
5. नेत्रवभषयन्द - वजस रोग में नेत्र से पी़िा क
े साथ साथ वनकलता है।
27. शुक्र प्रदोषज ववकार
शुक्रस्य दोषात् क्लैव्यमहषदणम् ।
रोवग वा क्लीबमल्पायुववदरुपं वा प्रजायते।।
न चास्य जायते गभदःपतवत प्रस्त्रवत्यवप।
शुक्र
ं वह दुष्टं सापत्यं सदारं बाधते नरम्। (च. सू. 28/18-19)
क्लैव्याप्रहषदशुक्राश्मरीशुक्रदोषादयश्च तद्दोषजाः (सु. सू. 24/16)
28. 1. क्लैव्य ध्वजोत्थान न होना या होने पर व्यवाय की शप्ति न होना
2. अहषदण प्तस्त्रयों क
े प्रवत आकषदण नहीं होना
3. शुक्रमेह - स्वप्न में शुक्र का पात होना अथवा मूत्र क
े साथ शुक्र की प्रवृवत्त होना।
4. शुक्राश्मरी शुक्र अपने ही मागद में बंधकर, स्वयं क
े मागद को अवरोवधत करता हैl
5. शुक्रदोष- दोष दुष्ट होकर वववभन्न प्रकार क
े शुक्र रोग उत्पन्न करते हैं। जैसे
शुक्रावृत्त वात या शुक्रगत वा
29. उपधातु प्रदोषज ववकार
िायवसराकण्डराभ्यो दुष्टाः प्तक्लश्नप्तन्त मानवम् स्तम्भ संकोच
खल्लीवभग्रदप्तिस्फ
ु रणसुप्तिवभः ।(च. सू. 28/18)
1. स्तम्भ अवरोध िायु वसरा व कण्डरा में दोष प्तस्स्थत होकर हस्त व पाद
गवतयों को अवरोवधत करते हैं।
2. 2. संकोच - अंगों में वात क
े कारण संकोच होता है अथवा स्तन्य व अन्य
उपधातुओं क
े मुख मागों का क
ु वचत होना।
30. 3. खाली पाद, जंघा, उरु तथा हाथ क
े मूल में ऐंठन उत्पन्न होना। यह बात क
े प्रकोप
से उत्पन्न व्यावध है।
4. ग्रप्ति शरीर क
े वकसी एक प्रदेश में वातावद दोषों क
े कारण अपने अपने लक्षणों
से युि ग्रप्तियां उत्पन्न होती है। जो ग्रप्ति वसराओं क
े ववकार से होती है उसमें
ि़िकन होती रहती है। मांस क
े ववकार से उत्पन्न ग्रप्ति का आकार ब़िा होता है
और उसमे वेदना नहीं होती है। मेद क
े ववकार से उत्पन्न ग्रप्ति विग्ध व चंचल होती
है।
5. स्फ
ु रण वात दुष्ट होकर वववभन्न अवयवों में ि़िकन पैदा करता है।
6. सुप्ति शून्यता वात दोष क
े प्रकोप से रि का प्रवाह सम्यक
् रुप से न होने से
अथवा दुबदलता होने से, अथवा नाव़ियों पर दबाव प़िने से शून्यता उत्पन्न होती है।
49. Spinal stenosis
Narrowing within the
vertebrae of the spinal
column that results in too
much pressure on the spinal
cord . The most common
causes of spinal stenosis are
related to the aging process
in the spine
51. Other causes :
Include irritation of
the nerve from
adjacent bone,
tumors, muscle,
internal bleeding,
infections, injury, and
other causes.
Sometimes sciatica
can occur because of
irritation of the sciatic
52. Examination
The physical examination of sciatic patients
should include:- observation, palpation,
determination of the range of motion of the
spine, a root tension test and evaluation of
the neurological status of the lower limbs.
53. straight leg raising test
“Lasègue sign“ : stretches the
L5 and S1 roots, and this test is
regarded positive if leg pain is
aggravated when the affected
leg.
54. Risk factors-
1. Age – age related changes in the spine such as herniated disc and bone
soup are the most common causes of sciatica.
2. Obesity – by increasing the stress on your spine, excess body weight
may contribute to the spinal changes that trigger Sciatica.
3. Diabetes – this condition which affects the way your body use blood
sugar increase your risk of nerve damage.
4. Occupation- It job that requires you to twist your back, carry heavy
loads or drive a motor vehicles for long periods may play a role in
sciatica but there is no conclusive evidence of this link.
5. Prolong sitting
55. Symptoms of sciatica
Crumping sensation in the thigh
radiating pain from the buttock down the back of the leg
tingling in the leg
numbness in the legs
burning sensation in legs or thigh area
severe cases present with muscles weakness
most often the symptom are seen only on one one side
if the symptoms are present on both side the disc bulge is usually more severe
most often the symptom are continuous
58. Complications
although most people recover fully from sciatica, often without
any specific treatment , sciatica can potentially cause
permanent nerve damage , seek immediated medical attention
if you experience.
loss of feeling in the affected leg
weakness in the affected leg
loss of bowel or bladder function
59. Differential diagnosis
Spondyloarthopathy
usually seen in the young
Pain does not refer distal to the knee
bilateral or alternating occurring episodlocally
not modified by activity
ESR is elevated
Rapid response to medication
60. Intramedullary tumours ( gliomas)
Nocturnal pain is common
patient bill stand or walk to bring relief
physical activity has no influence on the pain
Spine is sometime very stiff
radio graphic study are normal
surgery Relieves the patient
Infectious discitis
Infectious sacro illitis
61. Investigation
the most helpful investigation is MRI
also we can use CT Scan
x-ray to see losing of normal lordosis
65. 1. भारतीय पारंपाररक वचवकत्सा आयुवेद एक महान इवतहास है शोधकतादओं क
े
अनुसार रोगों क
े वनदान क
े वलए पुवष्ट प्राचीन ज्ञान क
े साथ आधुवनक परीक्षा ज्ञान का
जानना परम आवश्यक है।
2. रोगों क
े वनदान क
े वलए तथा particular disease क
े अनुसार दवाई देने क
े वलए
उवचत परीक्षा करना अत्यंत आवश्यक है।
3. आयुवेद में रोगों क
े वनदान क
े वलए रोग रत्नाकर में अष्ट संस्स्थान परीक्षा का वणदन है
इसे अष्ट वववध परीक्षा भी कहा जाता है।अष्ट स्स्थान परीक्षा क
े माध्यम से मध्ययुगीन
आयुवेद ववज्ञान वववभन्न रोगों को जानकार वचवकत्सा करते हैं।
4. Classic Ayurveda मैं अलग अलग प्रकार की परीक्षा का वणदन है। रोगी का बल
तथा रोगों क
े आकलन करने क
े वलए proper examination करना अत्यंत
आवश्यक है।
68. अिनवध पिीक्षा का महत्व
• आचायद योगरत्नाकर ने अष्टववध परीक्षा में भी ना़िी परीक्षा पर अवधक
ध्यान एकाग्र वकया। दोषों क
े प्रक
ु वपत होने पर ना़िी की परीक्षा कर
रोग क
े आवद और अन्त में ना़िी की प्तस्स्थवत का पूणद ज्ञान करना
चावहए ।
• वजस प्रकार वीणा में लगी हुयी तारे सब रागों को कहती है उसी
प्रकार हाथ में लगी हुयी नावडया सब रोगोंको प्रकट कर देती है।
आदौ सवेषु रोगेषु नाडीवजव्हावक्षमूत्रतः।
परीक्षाकारयेद्वैद्यः पश्चार्द्ोगं वचवकत्सयेत् ।।
70. • सवदप्रथम सब रोगों में वैद्य ना़िी, वजव्हा, आाँख और मूत्रावद
की परीक्षा करें, इसक
े पश्चात् रोग की वचवकत्सा करें।
• जो वैद्य ना़िी, मूत्र और वजव्हा आवद क
े लक्षण नहीं जानता है
वह रोगी को शीघ्र मार डालता है और वह वैद्य यश को नहीं
प्राि करता है।
• जो वैद्य देश, काल की लक्ष्य रखकर रोग क
े बलाबल का
ज्ञान करक
े वचवकत्सा करना प्रारम्भ करताहै वह यश और
कीवतद को प्राि करता है।
72. करस्याङ् गुष्ठमूले या धमनी जीवसावक्षणी ।
तच्चेष्टया सुखं दुःखं ज्ञेयं कायस्य पप्तण्डतै।।
शाङ्ग
द धर
शाङ्ग
द धर संवहता में ना़िी को स्पष्ट करते हुये बताया वक हाथ क
े अंगुष्ठ क
े मूल में
जो धमनी होती है यह जीवसावक्षणी है तथा इसकी चेष्टा से जीवन में सुख-दुःख का
ज्ञान वकया जा सकता है
73. िाडी पिीक्षा से पूवष आवश्यक सावधानियााँ
• वैद्य रोगी की नाडी परीक्षा करते समय अपने दावहने(right hand ) हाथ
से रोगी क
े दावहने हाथ क
े अंगूठे क
े नीचे जडभाग में स्पशद करे।
• नाडी परीक्षा का सवोत्तम काल प्रातः काल है जब रोगी शौचावद कायों से
वनवृत्त हो चुका हो तथा उसने भोजन ग्रहण नहीं वकया हो।
• वैद्य रोगी क
े दावहने हाथ की ना़िी को प्तस्स्थत-वचत, शान्त- आत्मा और
मन से अंगुवलयों द्वारा स्पशद करें।
• प्तस्त्रयों क
े बायें हाथ की ना़िी तथा पुरुषों क
े दायें हाथ की ना़िी की
परीक्षा करनी चावहये।
• वैद्य ना़िी की परीक्षा तीन बार करे ना़िी पक़िकर छो़िा जाये तथा मन व
बुप्तद्ध से पूणद ववचार करें।
74. वैद्य अपनी तीनों अंगुवलयों से ना़िी पक़िकर क्रम से बात-वपत्तावद तीनों दोषों
से होने वाले दोष तथा ना़िी की मन्द, मध्य व तीक्ष्ण गवत तथा तीनों दोषों वाली
गवत का लक्ष्य करें।
75. िाडी पिीक्षा वनजषत
सद्यः िातस्य भुिस्य तथा िेहावगावहनः । क्षुतृषातदस्य
सुिस्स्थ नाडी सम्यङ
् न बुध्यते ।।
(यो.र. नाडी परीक्षा/9)
1. तुरन्त िान वकये हुये
2. भोजन वकये हुये
3. तैल मददन वकये हुये हो
4. भूखा हो
5. तृष्णा से पीव़ित
6. सोये हुये
7. सोकर उठे हुए आवद की ना़िी परीक्षा नहीं करनी चावहये।
79. वात की ना़िी की गवत- सपद जलौका वत् टेढ़ी मेढ़ी गवत होती है।
वपत्त की ना़िी की गवत-
कि की ना़िी की गवत-
क
ु वलंग, काक, लावक और मण्ड
ू कवत्
चंचल गवत होती है।
हंस, पारावत, कपोत व क
ु क्क
ु ट की तरह
मन्द गवत
सवन्नपात की ना़िी की
गवत-
लाववतवत्तर क
े समान
(शार्ङ्
ष धि क
े मतािुसाि):-
काष्ठक
ु टर (कठिोडवे)
क
े समान अत्यन्त वेगवान व बीच बीच में रुक
जाती है।
80. नवनभन्न िोगावथिा में िाडी गनत
ज्वर - उष्ण व वेगवाली
वचन्ता भय - क्षीण
भूखे मनुष्य - चंचल
कामक्रोध - वेगवती
मन्दावग्न व धातुक्षीण - मन्दगावमनी
भोजन से तृि - प्तस्स्थर
84. • वैद्य रावत्र क
े अप्तन्तम प्रहर में चार घ़िी रावत्र शेष रहते रोगी को
उठाकर मूत्र कराये और उसी मूत्र की परीक्षा करे ।
• मूत्र को कांच क
े पात्र में रखें तथा सदैव सूयोदय होने पर परीक्षा करें।
• मूत्र की पहली धार को न रखे जबवक मध्य धार (Mid stream) मूत्र
का संग्रहण कर उसी मूत्र की सम्यक
् परीक्षा करे ।
• वातावद भेद से मूत्र क
े लक्षण वात क
े प्रकोप से रोगी का मूत्र पाण्डु
वणद का होता है। कि क
े प्रकोप से ि
े नयुि, वपत्त क
े प्रकोप से
रिवणद का होता है।
88. पवश्चम वदशा में यवद तैलवबन्दु जाये तो रोगी सुख व आरोग्यता
को प्राि होता है।
यवद तैल वबन्दू ईशान कोण की ओर जाये तो एक मास
क
े अन्दर रोगी की मृत्यु होगी।
तैलवबन्दु यवद आग्नेय कोण में जाये तथा यवद नैऋत्य कोण में जाये
और ि
ै लने पर उस तैल वबन्दु मेंवछर्द् वदखाई प़िे तो मनुष्य को
मृत्यु वनवश्चत होती है।
वायव्य कोण की और यवद तैल वबन्दु ि
ै ले तो उस पुरुष को
यवद अमृत भी वपलाया जाये तो भी वह वजन्दा नहीं रह सकता
है।
89. तैलनबन्दु की आक
ृ नत क
े अिुसाि साध्य व असाध्य
पिीक्षा
साध्यरोगों में तैल वबन्दु की आक
ृ वत- हंस
तालाब, कमल, छाता आवद
तैल वबन्दु की आक
ृ वत वदखने पर रोग
आरोग्य को प्राि करता है।
असाध्यरोगों में तैलवबन्दु की आक
ृ वत-
हल, क
ू मद, मधुमक्खी क
े छते क
े समान वसरोहीन मनुष्य क
आक
ृ वत वदखा देने पर रोगी को वचवकत्सा नहीं करनी चावह
90. मूत्र पर तैल वबन्दु का आकार सवादकार :- वातदोष ग्रवसत
मूत्र पर तैल वबन्दु का आकार छत्राकार :- वपत्तदोष ग्रवसत
मूत्र पर तैल वबन्दु का आकार मुिा :- किदोष समझना
92. आचायद योगरत्नाकर क
े अनुसार मल परीक्षा
वात क
े कोप से :-
वपत्त क
े कोप से :-
कि क
े कोप से :-
वत्रदोष कोप से :-
आमदोष मे :-
गाढ़ा व सूखा मल प्राि
पीलापन युि मल
िेतवणद मल
काला, टू टा हुआ, पीला, बंधा हुआ,
िेत वणद युि मल
कि जैसा मल
93. मल की जल वनमञ्जन परीक्षा
आचायद चरक क
े अनुसार
मज्जत्यामा गुरुत्ववद्वट पक्ा तूप्लवते जले। ववनाऽवतर्द्व
संघात शैत्यश्लेष्म प्रदू षणात् ।।
(च.वच. 15/94)
आम मल क
े लक्षण :- अत्यन्त दुगदन्धयुि, वचकना मल, जो जल में
डालने से ड
ू ब जाए, वह आम युि होता है।
वनराममल :- अत्यवधक दुगदप्तन्धत न हो, स्वभाववक गंध युि
हो, जल में डालने से तैरता है।
99. वपत्तरोगीभवेदुष्णो वातरोगी च शीतलः । श्लेष्मलः स
भवेद आर्द्द: स्पशदतचैव लक्ष्येत् ॥
(यो. र. स्पशदपरीक्षा)
वात रोग में
वपत्त रोग में
कि रोग में
शीत स्पशद
उष्ण स्पशद
आर्द्द स्पशद
101. रूक्षा धूिा तथा रौर्द्ा चला चान्तज्वलत्यवप
दृवष्टयंदा तदा वातरोग रोगववदो जगुः ॥
(यो. र. दृकपरीक्षा/1)
वात रोग से क
ु वपत :-
वपत्त रोग से क
ु वपत :-
कि रोग से क
ु वपत :-
वत्रदोषज रोग से क
ु वपत :-
रुक्ष, धूमवणद, ववकराल, चञ्चल, जलते हुए नेत्र
दीप की ज्योवत देखने में असमथद, जलते हुए
पीले नेत्र
जल पूणद, ज्योवतहीन, विग्धता युि नेत्र
श्याम वणद युि, िटे हुए, तन्द्रा व मोह युि
ववकराल, लाल वणद क
े नेत्र
103. आक
ृ नत पिीक्षा
इस परीक्षा क
े अन्तगदत रोगी क
े स्स्थूल भावों को
परीक्षा की जाती है रोगी का वणद छाया, सार,
संहनन, प्रमाण आवद की परीक्षा आक
ृ वत
परीक्षा दशदन क
े द्वारा की जाती है।
104. 1. अष्ट स्स्थान ववध परीक्षा का वणदन वनम्न मे से
वकस आचायद ने (मुख्य) रूप से वकया है।
A.योगरत्नाकार
B.शाङ्ग
द धर
C.चरक
D.सुश्रुत
105. वनम्न मे से कौन सी अष्ट स्स्थान ववध परीक्षा नहीं है ।
1.नाडी
2.वजव्हा
3.प्रक
ृ वत
4.1&2
106. वनम्न मे से तैल वबन्दु परीक्षा वकसक
े वलए है।
1. आक
ृ वत
2. मल
3. नाडी
4. मूत्र
107. ज्वर रोग मे नाडी की गवत क
ै सी होती है।
1. क्षीण
2. प्तस्स्थर –वेगवत
3. उष्ण वेगवली
4. चन्चल
108. मूत्र की तैल वबन्दु परीक्षा मे तैल वबन्दु यवद दवक्षण
वदशा की ओर जाए तो वनम्न मे से कौन सा रोग होगा
1. अवतसार
2. ज्वर
3. मूत्राघात
4. वातरि
109. शब्द परीक्षा मे स्वर का शुरू होना वनम्न मे से वकसका
कोप है -
1. V
2. P
3. K
4. वत्रदोष
110. रोगी क
े वणद, छाया, सार, संहनन, प्रमाण की परीक्षा
वकसेक द्वारा होती है।
1. वजव्हा
2. र्द्वष्ट
3. आक
ृ वत
4. प्रक
ृ वत