Definition of Kayachikitsa
Nirukti of Kaya
Fundamental concept of Kayachikitsa
Vriddhi and kshaya of Dosha
Vriddhi and kshaya of Dhatu
Vriddhi and kshaya of Mala
2. काय शब्द की निरुक्ति
1. “चीयिेअन्िाददभिरिनि काय: ”
अर्ााि अिादद से क्िसका पोषण होिा है उसे काय कहिे हैं काय शब्द की निष्पत्ति
चचञ्- चयिे धािु में घञ् प्रत्यय लगािे से होिी है। इसका अर्ा है देह।
2. काय का एक अर्ा शिीि िी है।
3.“कायनि शब्दायिे इनि कायः।”
निरूक्ति से काय का एक अर्ा मि िी है।
4.“कायिीनि कायः” के अिुसाि काय का अर्ा हृदय िी ककया िािा है।
काय का एक अर्ा िठिाक्नि िी ककया िािा है।
3. चिकित्सा
व्युत्पत्ति-
चचककत्सा शब्द “ककि् िोगापियिे” धािु में “सि्” प्रत्यय लगािे से भसद्ध हुआ है।
व्याकिण ग्रंर्ों में “ककि्” धािु का प्रयोग िोग को दूि कििे के अर्ों में प्रयुति होिा है।
निरुक्ति
1. “चचककत्सा रुक प्रनिकिया” अर्ााि िोग के प्रनिकाि कििे को ही चचककत्सा कहिे हैं|
(अमिकोश)
2. “के नििुम् इच्छनि इनि चचककत्सनि,चचककत्सनि इनि चचककत्सा।”
3. “या किया व्याचधहिणी सा चचककत्सा निगघिे|” (िावप्रकाश)
4. “चचककत्सा िोग निदािप्रनिकािे।” (वैघक शब्द भसन्धु)
5. “चचककत्सा िि् प्रनिकािः।” (िाि निघण्टू)
4. चचककत्सा की परििाषा
1. “या किया व्याचधहिणी सा चचककत्सा निगघिे|”
दोषधािुमलािाम वा साम्यिि सेव िोगह्रि॥ (िावप्रकाश)
व्याचध के हिण िाश कििे की किया को चचककत्सा कहिे हैं। िो किया शिीि के
घटक दोष धािु मल के अस्वास््यकि वैषम्य को दूि कि उन्हें सम स्वास््यकि
प्रमाण में लाकि धािु साम्य में स्र्ात्तपि कि िोग दूि किें वह चचककत्सा है।
2. चिुणाां भिषगादीिां शस्िािां धािुवैकृ िे|
प्रवृत्तिधाािुसाम्यार्ाा चचककत्सेत्यभिधीयिे|| (च.सू.9/5)
चचककत्सक औषचध परिचािक िोगी के प्रशस्ि िहिे पि धािु के त्तवकृ ि हो िाि पि
धािु साम्य पुिः स्र्ात्तपि कििे के भलए िो प्रवृत्ति होिी है उसे चचककत्सा कहिे हैं।
3. याभिः कियाभििाायन्िे शिीिे धािवः समाः|
सा चचककत्सा त्तवकािाणां कमा िद्भिषिां स्मृिम ्|| (च.सू. 16/34)
शिीि में त्तवषम हुए दोष धािु एवं मल क्िस किया द्वािा शिीि में साम्यवस्र्ा
को प्राप्ि होिे हैं उसे चचककत्सा कहिे हैं इसे ही वैद्य कमा िाम से िी िािा िािा
है।
4. रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यंआरोग्ता। (अ.ह्र.सू. 1/20)
दोष धािु की त्तवषमिा ही िोग है एवं उिकी साम्यवस्र्ा आिोनय है िोग अवस्र्ा में
त्तवसम हुए दोष धािु को साम्यावस्र्ा में लािे के भलए की िािे वाली किया
चचककत्सा कहलािी है।
5. कायचचककत्सा-अर्ा, परििाषा
कायचचककत्सा का शाक्ब्दक अर्ा है काय की चचककत्सा। त्तवभिन्ि आचाया िे इस
त्तवषय में भिन्ि-भिन्ि मि प्रस्िुि ककए हैं:
कायस्यान्ििनिेक्चचककत्सा। (चिपाणण)
कायचचककत्सा िाम सवााङ्गसंचििािां व्याधीिां ज्विितित्तपिशोषोन्मादापस्मािकु ष्ठ
मेहानिसािादीिामुपशमिार्ाम ् (सु.सू.1/8(3))
काय चचककत्सा इनि कायस्य अन्ििगिेक्चचककत्सा। (गंगाधि)
िाठिः प्राणणिामक्निः कायः इत्यभिधीयिे।
यस्िं चचककत्सेि् सीदन्िं स वै काय चचककत्सकः।। (िोि)
6. Fundamental Concept of Kayachikitsa includes:
• Dosa- Dusya vivecana
• Concept of Dosa
• Concept of Dusya
• Satkriyakala
• Bala, Vyadhi Pratyanika Ksamata,ojus, and
immunity
• Vyadhi with its Samprapti
• Concept of Ama
• Concept of Avarana
• The knowledge of Dosa, Dhatu, Mala
vriddhiksaya and its management etc.
7. निदाि एवं चचककत्सा
शिीि की वृद्चध, क्षय, आिोनय, अिािोनय, सुखायु दुखायु, दहिायु व अदहिायु का कािण
दोष दूष्य मल ओि अक्नि ही है।
स्विाविः त्रिदोष त्तवकृ ि होकि धािु उपधािु एवं मलो को दूत्तषि कििे है।
वविारो धातुवैषम्यं, साम्यं प्रिृ ततरुच्यते |
सुखसञ्ज्ञिमारोग्यं, वविारो दुुःखमेव ि||४|| (ि.सू.9/4)
समदोषुः समाग्ग्िश्ि समधातुमलकियुः |
प्रसन्िात्मेग्न्ियमिाुः स्वस्थ इत्यभिधीयते ||४१| (सु.सू.15/41)
रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यंआरोग्ता। (अ.ह्र.सू. 1/20)
इि दोषादद का त्तवषम या त्तवकृ ि होिा ही िोग या अस्वास््य है। यह वैषम्य निम्ि दो
प्रकाि का होिा है।
1. क्षय 2. वृद्चध
8. दोषाुः प्रवृदधाुः स्वं भलङ्गं दर्शयग्न्त यथाबलम ्|
क्षीणा जहतत भलङ्गं स्वं, समाुः स्वं िमश िु वेते॥ (ि.सू.17/62)
वाते वित्ते िफे िैव क्षीणे लक्षणमुच्यते|
िमशणुः प्रािृ तादधातिवृशदचधवाशऽवि ववरोचधिाम्|| (ि.सू.18/52)
दोष आदद िब क्षीण होिे हैं िब उिके प्राकृ ि कमों का ह्रास हो िािा है एवं त्तविोधी
गुण कमों की वृद्चध होिी है। िब दोष आदद वृद्ध होिे हैं िब वे अपिे लक्षणों को
यर्ाबल प्रकट कििे हैं अर्ााि उिके प्राकृ निक गुण कमों का उिके बल के अिुसाि
आचधतय हो िािा है।
क्षयुः स्थािं ि वृदचधश्ि दोषाणां त्रिववधा गततुः।। (ि.सू.17112)
दोषों की गनि निम्ि िीि प्रकाि की होिी है-
१.क्षय २.वृद्चध ३.स्र्ाि (सम)
9. यह क्षय वृद्चध निम्ि दो प्रकाि से होिी है
1. चय या संचय
2. प्रकोप
िय संिय
दोष का अपिे प्राकृ ि या स्वािात्तवक स्र्ाि पि िहकि ही बढ़िा चय या संचय
कहलािा है। िैसे पतवाशय में वायु का िाभि स्र्ाि में त्तपि का एवं आमाशय में
कफ का संचय होिा है।
वाि संचय- स्िब्धपूणाकोष्ठिा
त्तपि संचय- पीिाविासिा मन्दोष्मिा
कफ संचय- चाङ्गािां गौिवमालस्यं
चयकािणत्तवद्वेषश्चेनि भलङ्गानि िवक्न्ि
व्यक्ति को क्िि कािणों से दोष चय हुआ है उिके प्रनि द्वेष होिा है अर्ााि उिके
सेवि की अनिच्छा होिी है। आधुनिक िीवाणु त्तवज्ञाि में वणणाि incubation
period से संचय अवस्र्ा का सामंिस्य स्र्ात्तपि ककया िािा है।
प्रिोि
संचचि दोष िब अचधक बलपूवाक प्रकु त्तपि होकि उन्मागी हो िािे हैं एवं स्वस्र्ाि से
अन्य स्र्ाि की ओि िािे की िैयािी कििे हैं िब उस अवस्र्ा को प्रकोप कहिे हैं।
िेषां प्रकोपाि् कोष्ठिोदसञ्चिणाम्लीकात्तपपासापरिदाहान्िद्वेषहृदयोत्तलेदाश्च िायन्िे।
िि द्त्तविीयः कियाकालः ||(सुसू.21/२७||
समावस्था
स्व स्र्ाि पि दोष िब सम अवस्र्ा में िहिा है िब संदहिाओं में उसके साम्य के
िो कमा एवं लक्षण कहे गए है वे प्राकृ ि रूप में होिे हैं अन्य स्र्ािगि सम दोष िी
िोग उत्पादक होिा है इसे ‘आर्याििषश’ कहिे है।
11. वातक्षय
वातक्षये मन्दिेष्टताऽल्िवाक्तत्वमप्रहषो मूढसञ्ज्ञता ि। (सु.सू.15/7)
िब वाि कम हो िािा है, चेष्टिाओ मे अल्पिा शिीि की दुबालिा, व्यक्ति
बहुि कम बोलिा है औि बहुि कम गनित्तवचध कििा है (हषा का
अिाव),संवेदिाओं की हानि,चेििा की हानि।
वातवृदचध
वातवृदधौ वाक्तिारुष्यं िाश्यं िाष््यं गािस्फु रणमुष्णिाभम(म)ता तििा
िार्ोऽल्िबलत्वं गाढविशस्त्वं ि। (सु.सू.15/13)
िब वाि बढ़िा है िो त्वचा का खुिदिापि, शिीि का क्षीण होिा, गहिा
िंग, अंगों का कांपिा। ऐसा व्यक्ति गमा चीिों के भलए ििसिा है। वह
अनिद्रा से पीड़िि है। वह उत्साहहानि मेह्सूस कििा है। वह कदठि मल
पास कििा है।
12. वित्तक्षय
वित्तक्षये मन्दोष्माग्ग्िता तिष्प्रिता ि। (सु.सू.15/7)
शिीि का िापिम उष्मा सामान्य से कम पाया िािा है
शिीि की अक्निया मुख्यिा िठिाक्नि मंद हो िािी है परिणाम स्वरूप
पाचि शक्ति कम हो िािी है
त्वचा प्रिा एवं कांनि िदहि हो िािी है।
वित्तवृदचध
वित्तवृदधौ िीताविासता सन्तािुः र्ीतिाभमत्वमल्ितििता मूच््ाश ब
लहातिररग्न्ियदौबशल्यं िीतवव्मूििेित्वं। (सु.सू.15/13)
त्वचा के सार्-सार् िेि मल मूि आदद का वणा पीिाि हो िािा है
संिाप अर्ााि शिीि का िाप बढ़िे के सार् सार् दाह की अिुिूनि होिी
है
शीि आहाि-त्तवहाि की इच्छा होिी है, िींद र्ो़िी आिी है, भ्रम औि िम
के परिणाम स्वरूप मूछाा का अिुिव होिा है, शािीरिक बल की कमी हो
िािी है, इंदद्रयों की साम्या या शक्ति अल्प हो िािी है।
13. श्लेष्मक्षय
श्लेष्मक्षये रूक्षताऽन्तदाशह आमार्येतरश्लेष्मार्यर्ून्यता
सग्न्धर्ैचथल्यं तृष्णा दौबशल्यं प्रजागरणं ि ॥ (सु.सू.15/7)
शिीि के अंग प्रत्यय त्तवशेष रुप से त्वचा आदद में स्िेह अंश कम हो िािे पि
रुक्ष हो िािे हैं, श्लेष्मा की कमी होिे पि स्विाविा पैनिक लक्षणों मे वृद्चध हो
िािी है, परिणाम स्वरूप अंिदााह िर्ा त्तपपासा की अिुिूनि अचधक होिी है
अमाशय को छो़िकि श्लेष्मा के अन्य स्र्ाि में शून्यिा सी िहिी है,अक्स्र्
संचधया भशचर्ल हो िािी हैं, दुबालिा की अिुिूनि होिी है पूवाअपेक्षा िींद कम
आिी है।
श्लेष्मवृदचध
र्ौक्तल्यं र्ैत्यं स्थैयं गौरवमवसादस्तन्िा तििा सग्न्धववश्लेषश्ि ||
(सु.सू.15/13)
श्लेष्मा की वृद्चध के कािण शिीि का वणा श्वेिाि हो िािा है शीिलिा की
अिुिूनि होिी है स्र्ैिय गुण के कािण शिीि अंगों में त्तवशेष रूप से संचधयों में
िक़िि िहिी है गौिव अर्ााि शिीि के िाि में वद्चध हो िािी है अवसाद यािी
शिीि औि मि भशचर्ल हो िािे हैं िंद्रा निद्रा संचधयों में दुबालिा उत्पन्ि हो
िािी है।
15. रस धातु
1.िसस्िुक्ष्टं प्रीणिं ितिपुक्ष्टं च किोनि|| (सू.सु.15/4)
2.िसक्षये हृत्पीडाकम्पशून्यिास्िृष्णा च|| (सू.सु.15/9)
3.घट्टिे सहिेशब्दं िोच्चैद्रावनिशूल्यिे। हृदयं िाम्यनि स्वल्पचेष्टस्यात्तप िसक्षये||(च.सू.17/64)
4.िसोऽनिवृद्धो हृदयोत्तलेदं प्रसेकं चापादयनि॥ (सू.सु.15/14)
धािु प्राकृ ि कमा व लक्षण क्षय लक्षण वृद्चध लक्षण
रस प्रीणि, िुक्ष्ट, िपाण,
िति पुक्ष्ट।(1)
शब्द असदहष्णुिा,
हृद्द्रव, हृदय पी़िा,
नलानि, तलम, शून्यिा,
िम, िृष्णा, शोष, प्राकृ ि
कमा ह्रास, िति आदद
धािु अपचय आदद ।
(2)(3)
अक्निमांद्य प्रसेक
उत्कलेद आलस्य गौिव
श्वैत्य कास श्वास
शैचर्ल्य
अनिनिद्रा(4)आदद।
17. मांस धातु
मांस शिीिपुक्ष्टं मेदसश्च। (सू.सु.15/4)
मांसक्षये क्स्फनगण्डौष्ठोपस्र्ोरुवक्षः कक्षात्तपक्ण्डकोदिग्रीवाशुष्किा िौक्ष्यिोदौ गािाणां
सदिं धमिीशैचर्ल्य॥ (सू.सु.15/9)
मांसक्षये त्तवशेषेण क्स्फनग्रीवोदिशुष्किा | (च.सू.17/65)
मांसं अनिवृद्चधं क्स्फनगण्डौष्ठोपस्र्ोरुबाहुिङ्घासुवृद्चधं गुरुगाििां च। (सू.सु.15/14)
धािु प्राकृ ि कमा व लक्षण क्षय लक्षण वृद्चध लक्षण
मांस शिीिपुक्ष्ट, मेदपुक्ष्ट,
अक्स्र्, स्िायु, िा़िी एवं
भसिा की िक्षा कििा।
क्स्फग-गण्ड- ओष्ठ,
भशशि, वक्ष, ग्रीवा, कक्षा,
उरु, उदि में शुष्किा,
शिीि में रुक्षिा, िोद, अंग
र्कावट, धमिी शैचर्ल्य,
संचधवेदिा, संचधस्फु टि,
िेि गलानि िाि क्षय
आदद।
क्स्फग-गण्ड-ओष्ठ
भशशि, उरू, बाहु िंघा
आदद अंगों की
स्र्ूलिा, शिीि में
गुरुिा, अचधमांस,
अबुाद, अशा, औष्ठ
प्रकोप, मांसलिा आदद
18. मेद धातु
मेदः स्िेहस्वेदौ दृढत्वं पुक्ष्टमस््िां च। (सु.सू.15/4)
मेदःक्षये प्लीहाभिवृद्चधः सक्न्धशून्यिा िौक्ष्यं मेदुिमांसप्रार्ािा च। (सु.सू.15/9)
सन्धीिां स्फु टिं नलानििक्ष्णोिायास एव च| लक्षणं मेदभस क्षीणे ििुत्वं चोदिस्य च||
(च.सू.17/66)
मेदःक्स्िनधाङ्गिामुदिपाश्वावृद्चधं कासश्वासादीि् दौगान््यं च॥ (सु.सू.15/14)
धािु प्राकृ ि कमा व लक्षण क्षय लक्षण वृद्चध लक्षण
मेद स्िेहि स्वेदि शिीि की
दृढ़िा मादाविा एवं अक्स्र्
पुक्ष्ट
प्लीहा वृद्चध
संचधशून्यिा,रूक्षिा
मांस खािे की
इच्छा,संचध स्फु टि,
कृ शिा, गलानि, िेिों
में नलानि,िम, उदि
ििुत्व, प्राकृ ि कमा
का ह्रास आदद
क्स्िनध अंगिा
उदिपाश्वा वृद्चध कास
श्वास दौगान््य
19. अग्स्थ धातु
अस्र्ीनि देहधािणं मज्ज्ञः पुक्ष्टं च। (सु.सू.15/4)
अक्स्र्क्षयेऽक्स्र्शूलं दन्ििखिङ्गो िौक्ष्यं च। (सु.सू.15/9)
के शलोमिखश्मिुद्त्तविप्रपििं िमः| ज्ञेयमक्स्र्क्षये भलङ्गं सक्न्धशैचर्ल्यमेव च ||
(च.सू.17/67)
अस््य्यस्र्ीन्यचधदन्िांश्च। (सु.सू.15/14)
धािु प्राकृ ि कमा व लक्षण क्षय लक्षण वृद्चध लक्षण
अक्स्र् देह धािण एवं मज्िा
पुक्ष्ट आदद
अक्स्र् शूल,संचधशूल,
संचधभशचर्लिा, के श
लोम िख
श्मिु िोमादद का
चगििा व र्कावट
आदद
अ्यक्स्र् अचधदंि
के श व िख
अनिवृद्चध आदद
20. मज्जा धातु
मज्िा स्िेहं बलं शुिपुक्ष्टं पूिणमस््िां च किोनि। (सु.सू.15/4)
मज्िक्षयेऽल्पशुििा पवािेदोऽक्स्र्निस्िोदोऽक्स्र्शून्यिा च। (सु.सू.15/9)
शीयान्ि इव चास्र्ीनि दुबालानि लघूनि च|
प्रििं वाििोगीणण क्षीणे मज्िनि देदहिाम ्|| (च.सू. 17/68)
मज्िा सवााङ्गिेिगौिवं च। (सु.सू. 15/14)
धािु प्राकृ ि कमा व लक्षण क्षय लक्षण वृद्चध लक्षण
मज्िा शिीि स्िेहि बल
संपादि शुि पुक्ष्ट
अक्स्र् पूिण आदद
अल्प शुििा
पवािेद,
अक्स्र्नछद्रिा अक्स्र्
निस्िोद भ्रम
निभमि िम वाि
िोग व प्राकृ ि कमा
हृास आदद
सवाांग व िेि में
गौिव िमो दशाि
भ्रम मूच्छाा, अक्स्र्
पवा पि व्रण उत्पत्ति
आदद
21. र्ुि धातु
शुिं धैयां च्यविं प्रीनिं देहबलं हषां बीिार्ां च। (सु.सू.15/4)
शुिक्षये मेढ्रवृषणवेदिाऽशक्तिमैर्ुिे चचिाद्वा प्रसेकः प्रसेके चाल्पितिशुिदशािम्
(सु.सू. 15/9)
दौबाल्यं मुखशोषश्च पाण्डुत्वं सदिं िमः| तलैब्यं शुिात्तवसगाश्च क्षीणशुिस्य लक्षणम्||
(च.सू.17/69)
शुिं शुिाश्मिीमनिप्रादुिाावं च। (सु.सू.15/14)
धािु प्राकृ ि कमा व लक्षण क्षय लक्षण वृद्चध लक्षण
शुि धैया च्यवि प्रीनि देहबल
हषा आदद
दौबल्य
मुखशोष पाण्डू
सदि िम तलैब्य
शुि का देि से
स्िाव मेढ् वृषण
वेदिा शुि ितििा
आदद
शुिाश्मिी शुि अनि
प्रवृत्ति स्वप्िदोष मैर्ुि
की अनि इच्छा शुि
प्रदोषि त्तवकाि आदद।
23. िुरीष
प्रािृ त िमश व लक्षण
पुिीषमुपस्िम्िं वाय्वक्निधािणं च। (सु.सू.15/5)
उपस्िम्ि, वायु-अक्नि धािण
िुरीषक्षय
पुिीषक्षये हृदयपाश्वापीडा सशब्दस्य च वायोरू्वागमिं कु क्षौ
सञ्चिणं च। (सु.सू.15/11)
हृदय पाश्वा मे पीडा, शब्द के सार् वायु का ऊ्व अधः एवं नियाक
गमि एवं कु क्षी में संचिण
िुरीषवृदचध
पुिीषमाटोपं कु क्षौ शूलं च।(सु.सू.15/15)
आटोप, कु क्षक्षशूल